SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मरहस्य'. ७५ ......mor...wommerma orammar की मावचाके त्यागका उपदेश है। क्योंकि कोई भी कार्य अन्तरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त इन दो मूल कारणोंके अपनी यथेष्ट अवस्थाओंमें मिले विना नहीं बनता और उन सब कारणों अथवा उन कारण-द्रव्योंकी उस उस अवस्थारूप तू स्वयं नहीं है और न उन पर-द्रव्योंको अपने रूप परिणमानेकी तुझमें शक्ति है-कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको छोड़कर कभी दूसरे द्रव्यरूप परिणमता नहीं- तब तू अकेला उस कार्यका कर्ता कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । अतः तेरा अहंकार व्यर्थ है, जो तुझे अपने स्वरूपसे भ्रान्त (गुमराह) रखकर पतनकी ओर ले जाता है । अथवा यों कहिये कि देहमें आत्मबुद्धि धारण कराकर संसारके दुःखोंका पात्र बनाता है। ऐसे ही अहंकारसे पीड़ित प्राणियोंको लच्य करके स्वामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोत्रमें उन्हें अनीश्वर-असमर्थ बतलाते हुए निम्न वाक्य कहा है अलव्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाऽऽविष्कृत-कालिंगा। अनीश्वरो जन्तुरहक्रियातः सहत्य कार्येष्विति साध्ववादी ॥ " ~ यहाँ कार्यमें कतत्वके अहंकारको त्यागनेकी बात कही गई है, न कि कार्यको',त्यागनेकी । कार्य तो किया जाना ही चाहिये; क्योंकि भवितव्यताका लक्षण भी वह कार्य है ॥ जो. : अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणोंके मिलनेसे
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy