SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्राह्मण कन्या की कथा | १८६ अपने माता-पिता की मैं एक मात्र सन्तान हूँ अत प्रारम्भ से ही उनके समस्त स्नेह की पात्र में ही रही हूँ । पिताजी ने मेरी शिक्षा दीक्षा की भी बडी उत्तम व्यवस्था की और उसी के परिणाम स्वरूप मै आज ...। खैर आत्म- प्रशसा मुझे शोभा नही देगी, किन्तु यह सत्य है कि जब मैं पर्याप्त आयु की हो गयी तो मातापिता को मेरे भावी वियोग की कल्पना से ही दुख होने लगा और वे कुछ उदास रहने लगे। फिर भी किसी कन्या का पिता कब तक इस ओर से आंखे बन्द रख सकता है । मेरे पिताजी को भी योग्य वर की खोज मे व्यस्त होना पड़ा। बडी दौड़-धूप के पश्चात् पिताजी को अन्तत सफलता प्राप्त हो ही गयी । पिताजी ने मेरी सगाई कर दी । जयश्री कुछ क्षण मौन रह कर पुन कहने लगी कि हे स्वामी ! जब वह ब्राह्मण कन्या राजा को यह कहानी सुना रही थी, राजा अपना धैर्य खो बैठा । बडी देर से वह यह सोचते-सोचते उकता गया था कि कैसी कथा यह सुना रही है । कहना क्या चाहती है यह । और तब राजा चुप नही रह सका । वह बीच मे वोल पडा कि ब्राह्मण-पुत्री तुम कथा सुनाने आयी हो या विनोद करने । यह क्या ऊलजलूल . ** धीरज रखिये महाराज | धीरज रखिये | कथा ही तो सुना रही ही हूँ | इस कथा को समाप्ति तक तो पहुँचने दीजिए । इतना कह कर उसने पुन कथा का छोर पकडा । हाँ तो महाराज ! मेरी सगाई कर दी गयी । अभी विवाह की कोई तिथि भी निश्चित नही हुई थी कि एक साथ वर मेरे घर पर आया । मैंने उसे · 1
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy