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________________ १९० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार पहले कभी देखा ही नही था । उसने स्वय ही जव अपना परिचय दिया तो मैं लज्जा से झुक गयी। मुझे लगा कि पिताजी का चुनाव अदोष है । वर वडा सुशील और गुणवान लगा । स्वभाव से भी वह वडा कोमल था ओर मधुरभाषी भी । व्यवहारकुशलता और शिष्टता मे भी पीछे न था । उस साय उसने मुझे मधुर प्रेमालाप से आकर्षित कर लिया था । धीरे-धीरे रात उतर आयी और जब वह विदा होकर जाने लगा तो वडी चतुराई के साथ वह मेरी अलंकार- मंजूषा उठाकर ले जाने लगा । किसी प्रकार में इसे भांप गयी, तो वह भागने लगा। मैं तनिक उच्चस्वर से बोलने लगी, तो मुझे डराने के लिए उसने चाकू निकाल लिया । कन्या कहने लगी कि बडा अनर्थ हो गया, महाराज | बड़ा अनर्थ हो गया। उसके हाथ मे चाकू को चमचमाते देखकर मैं तो आतकित ही हो गयी थी । किंकर्तव्यविमूढ सी कुछ क्षण तो मै सोचती रही, किन्तु यह सोचकर कि इस प्रकार काम न चलेगा - मैं आगे बढी । साहस के साथ मै उसके हाथ के 1 -- चाकू को छीन लेना चाहती थी, किन्तु वह देना नही चाहता था । इसी छीना-झपटी मे चाकू उसके पेट मे घुस गया और देखते ही देखते उसके प्राण पखेरू उड गये । उसके शव को देखकर तो मैं काँप उठी। कुछ भी सोच नही पा रही थी कि अब में क्या करूं। सयोग से इस समय माता-पिता घर मे नही थे। मैंने साहस बटोरा और शव को पिछवाड़े ले जाकर गड्ढा खोद कर गाड दिया । कन्या अभी और कुछ कहना चाहती थी कि राजा ने आवेश के साथ कहा- बन्द करो यह प्रलाप । कथा सुनाने के नाम पर
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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