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________________ १८८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार पर बैठ गया था और कथावाचक की प्रतीक्षा की जा रही थी। मभी लोगो के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा, जब उन्होने देखा कि किसी पण्डित के स्थान पर एक कन्या आज कथावाचन के लिए आई है। यह वही ब्राह्मण-कन्या थी। अब से पूर्व कोई महिला इस हेतु नही आयी थी। राजा ने भी देखा, तो कुतूहल मे पड गया । शास्त्रीय असगति न होने के कारण कन्या को लौटा देना तो उसे उचित प्रतीत नही हो रहा था, किन्तु उसके मन मे इस वाचिका के प्रति योग्यता सम्बन्धी सन्देह अवश्य था। यह सन्देह का भाव राजा की आँखो मे तैर आया था। उसके नेत्र मानो कन्या से प्रश्न करने लगे थे कि क्या तुम कथा सुना सकोगी ? राजा की वाणी ने नेत्रो की और भी पुष्टि कर दी। उचित स्वागत सत्कार के पश्चात् जब ब्राह्मण-कन्या अपने आसन पर बैठी तो राजा ने उससे यही कहा कि हमे कथा सुनाने के लिए तो आई हो, किन्तु कोई आदर्श और नीति पूर्ण कथा सुनाना और बड़े ढग से सुनाना । ऐसा न हो कि ....! राजा की बात को बीच ही मे काटकर कन्या ने उसे आश्वस्त किया कि मेरी प्रतिभा और योग्यता में सन्देह मत कीजिए महाराज | आपने अनेक वाचको मे अनेक कथाओ का श्रवण किया है, किन्तु मै आपको आज जो कथा सुनाऊंगी उममे आपको अपूर्वता का ही अनुभव होगा। एक नवीनता का आभास आपको उसमे होगा। राजा ने आश्वस्त होकर कन्या में कहा कि अच्छी बात है। फिर कथा आरम्भ करो। कन्या ने कथा आरम्भ की-सुनिये महाराज ! मेरे पिता मेरे प्रति गहन वात्सल्य का भाव रखते है ।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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