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________________ रासाका नामनिर्णय एक साहित्यिक व्यक्ति द्वारा लिखे जानेके कारण रासामें सहृदयजनके लिए आनन्दको इस भांति पर्याप्त सामग्री है। किन्तु वास्तवमें उसका महत्व साहित्यिक नहीं, ऐतिहासिक है । साहित्यकी दृष्टिसे अनेक अन्य कृतियाँ कायमरासासे बढ़ी चढ़ी हैं, किन्तु अपने निजी क्षेत्रमें यही प्रमुख वस्तु है। कायमखानियोंका इतना अच्छा और इतना विश्वसनीय वर्णन हमें अन्यत्र नहीं मिलताऔर वह भी इतने रोचक ढंगसे कि पाठकका मन कभी नहीं ऊवता, यही इच्छा बनी रहती है कि वह और पढ़े । वंशके गर्वसे यत्र-तत्र कुछ बातें शायद बिना जाने ही कुछ बढ़ा कर लिखी हों। किन्तु जान कर तो शायद उसने ऐसा न किया होगा । सच्चे भारतीयकी तरह वह कभी यह भूल नहीं पाता कि यह संसार क्षणभंगुर है। प्रोजस्वीसे ओजम्बी वर्णनके पश्चात् जब वह लिख बैठता है जो लौं दौलतखां जिये, साके किये अपार । अंत न कोउ थिर रहै, या झूठे संसार । तो हमें प्रतीत होता है कि यह कोई दरबारी इतिहास लेखक नहीं है, न अबुल्फजल है और न बाबर । सत्य इसे प्रिय है, यह व्यर्थकी अतिशयोकिमें विश्वास नहीं रखता । पुस्तकका ऐतिहासिक सार पूर्व दिया जा चुका है । पुस्तकके अन्तमें दी हुई टिप्पणियों द्वारा हमने रासाके ऐतिहासिक मूल्याङ्कनका भी प्रयत्न किया है। अतः सामान्यरूपसे ही रासाके ऐतिहासिक महत्वका हम यहां निर्देश कर रहे हैं। किवामरासा या क्यामरासा यह पुस्तक आजकल 'कायमरासा' के नामसे अधिकतर विद्वानोंको ज्ञात है। किन्तु इसके मूल नायकका वास्तविक नाम 'किवामखां' होनेके कारण 'किवामरासा' कायमरासासे कहीं अधिक शुद्ध शब्द है । यह शब्द विगह कर 'क्यामराला' बन गया है। इसे शुद्ध कर कायमरासाका रूप देना ठीक नहीं है । 'किवामखो' के वंशजोंको भी कायमखानी न कह कर 'किवामखानी' या 'क्यामखानी' कहना अधिक ठीक होगा । हमने कायमरासाके स्थान 'क्यामखांरासा' लिखना उचित समझा है। पुस्तकका रचनाकाल संवत् १६९१ अर्थात् सन् १६२४ है। उस समय बादशाह शाहजहां दिल्लीके सिंहासन पर उपस्थित था । मुगल साम्राज्य अपने वैभवके शिखिर पर पहुंच कर अस्तोन्मुख होनेकी तय्यारी कर रहा था। बलख और कन्धारकी पराजय, जिनका वर्णन रासामें वर्तमान है, उसके प्रथम लक्षण थे । दक्षिणमें मलिक अम्बरके विरुद्ध युद्ध करते हुए जिन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा था, उनका भी इसमें अच्छा दिग्दर्शन है । रचयिताके पिता अलिफखां, भाई दोलतखां, और भतीजे ताहरखांने इनमें भाग लिया था। अतः इनका वर्णन ठीक होना स्वाभाविक ही था ।
SR No.010643
Book TitleKyamkhanrasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1953
Total Pages187
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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