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________________ [१०] जब तक वे सोनगढ़ रहे दिनमे पूज्य गुरुदवेश्रीकी स्वानुभवरसमय पुरुषाथ-प्रेरक वाणीका अमृत-बोध लेते और रात्रिमे अपने कमरेमे बैठ निजात्मरस-पानका उद्यम किया करते चेतनाके ऊर्ध्व शिखरोंकी ओर उनका आरोहण होता रहता । और सतत स्वरूपरस-घोलन चलता रहता । वे आत्माकी ही धुनमे रमे रहते और निरन्तर आध्यात्मिक तन्द्रा बनी रहती । इस तरह एक-एक पल सरकता गया और न जाने कब १०-१२ दिन निकल गये, उन्हें पता ही न था । तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल-जन्य हिसात्मक दंगोंकी भयावह परिस्थितिमे भी वे श्रीगुरुके दर्शनार्थ इतने भावावेगमे थे कि उन्होंने परिवारवालोको अपने सोनगढ़ जानेके सम्बन्धमे सूचना तक नहीं दी थी। घरवाले यही समझते रहे कि कारोबारके सिलसिलेमे कही गये है और दो-चार दिनोमे लौट आयेगे। किन्तु जब हफ्ते-दश दिनों तक भी उनका कोई समाचार तक नहीं मिला तो वे चितातुर हो उठे । काफ़ी छानबीन करनेपर जब उनकी सोनगढ़ जानेकी प्रबल सम्भावनाका आभास मिला तब उनके चितातुर परिवारने एक तार सोनगढ़ भी दिया । उस तारके सन्देशने श्री सोगानीजीकी आध्यात्मिक तन्द्रामें विक्षेप डाल दिया। और उन्हे मजबूरन अपने भवमोचक श्री गुरुके साक्षात् चरणसान्निध्यको छोड़कर अजमेर लौटना पड़ा। * सहज उदासीनता : श्री सोगानीजीको ज्ञानदशा पूर्व भी संसारासक्ति नहीं थी । उन्हे सांसारिक प्रसंगोमें कही कोई रस, रुझान या रुचि नही रहती थी। उनके बच्चे किन-किन स्कूलोमे व श्रेणियोंमे पढ़ते है ? उनके लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा व विकासको क्या व्यवस्था है ? घर-गृहस्थीकी आवश्यकताओकी सम्पूर्ति हेतु क्या योजना है ? - इत्यादि अनेक प्रश्न व उलझनें जहाँ सामान्य मानवके अन्तर् मनको प्रायः व्यथित व कचोटते रहते है, वहाँ ऐसे प्रश्नोने उनकी अन्तर्मुख मनोदशाको कभी आन्दोलित या विचलित
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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