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________________ [११] नही किया। सोनगढ़से लौटनेके पश्चात् तो उनके परिणामों में एक विशेष प्रकारकी उदासीनता घिरी रहने लगी और निर्लिप्त भावसे परमान्दकी खुमारी निरन्तर वर्तने लगी । सर्व पूर्व प्रारब्ध उदा-जन्य सांसारिक उपाधियों व झंझटोंकी ओर अस्थिरतावश जाता उनका उपयोग भी, उन्हें वर्तती सहज स्वरूपपरिणतिको, भाररूप प्रतीत होता व उगामें भट्ठीमे जलने-सी पीडाका वेदन होने लगता था । तथापि सर्व उदयगत् विभावभावोंको. निरुपायतावश अविषम परिणामसे वेदते रहना ही रानकी नियति थी। तत्त्वतः सहजता, सहज समता व सहज उदासीनता सर्व ज्ञानीपुरुषोंका सनातन सदाचार होता है। * कलकत्ता-प्रवास : निवृत्ति लेकर, श्रीगुरु-चरणसान्निध्यमे हकर ऐकान्तिक स्वरूप-साधनाके प्रति श्री सोगानीजीको असीम आकर्षण व भावना वर्तती थी; फिर भी उन्हे नियतिके पाशमे बॅधकर, लाचारीसे सन् १९५० मे अजमेर छोड़ना पड़ा; और अपनी भावनाके अत्यन्त प्रतिकूल क्षेत्र - असत्संग-प्रसंगके बाहुल्यसे घिरे व कोलाहलयुक्त, मायामयी महानगर 'कलकत्ता में एक प्रसिद्ध कपड़ा मिलकी एजेन्सीके कार्यभारवश जाना पड़ा । सन् १९५८ मे उनका पूरा परिवार भी कलकत्ता आ बसा । और उक्त वस्त्र व्यवसायकी प्रवृत्तिमें उनका बाह्य शेष जीवन भी कलकत्तामे ही व्यतीत हुआ ।। इसी बीच उन्होने सत्संगकी भावनासे सन् १९५३ से कलकत्ता स्थित बड़े मन्दिरजीमें शास्त्रस्वाध्यायकी प्रवृत्ति शुरू की थी। तथा अन्तिम वर्ष ( सन् १९६४ )मे भी उन्होने लगभग ४० दिनों तक सामूहिक शास्त्र-स्वाध्याय किया था। सन् १९५६ मे अपने जीवन-उद्धारक पूज्य गुरुदेवश्री कहानजी स्वामीके तीर्थयात्राके प्रसंगमे कलकत्ता पधारनेके पूर्व जब उनके भव्य
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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