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________________ [९] उनको निर्विकल्प तत्त्वकी धुन अति वेग पूर्वक चलती रही । कब दिन ढला, कब निशाने अपनी काली चादर फैलाई, कुछ भान नही रहा; उन्हें सभी उदय संयोग-प्रसंग विस्मृत हो गये; बस ! अनवरत एक ही धुन चल रही थी। ____ जब जगत्वासी नीरव निशीथिनीके अंकमे समा चुके थे तब वे 'समिति'के एक कमरेके कौनेमें बैठे अपने उद्दीप्त हुए चैतन्य-रसके प्रवाहमे निमग्न थे । उनका स्वरूपोन्मुखी सहज पुरुषार्थ पुरजोशसे गतिशील था । - ऐसी अपूर्व जात्यन्तर अन्तर स्थितिवश उनके सभी अन्तर्बाह्य प्रतिबन्धक कारण भी स्वयमेव अस्त हो गये । तभी तत्क्षण वृद्धिशील पुरुषार्थ-प्रवाह अपूर्व वेगसे वर्द्धमान हो अन्तर्मुख हो गया और उसी क्षण श्री सोगानीजीकी आत्माने अपने स्वसंवेदनमे रह कर, अपने प्रत्यक्ष परमात्माका दर्शन किया; और उन्हें अपने अतीन्द्रिय स्वरूपकी स्वानुभूति हुई । और तत्काल ही उनके आत्माके प्रदेश-प्रदेशमें अतीन्द्रिय स्वरूपानंदी बाढ़ आ गई। अनादिसे अतृप्त परिणति स्वरूपानन्द-पानसे तृप्त-तृप्त हा उठी। ____ जिनवाणीका निर्मल अमृत-प्रवाह उनकी अनादि कुंठाकी चट्टान तोड़कर छलछला उठा । विकल्प-समुद्रका गर्जन-तर्जन जैसे अनायास ही शान्त होकर थम गया । ये ऐसी भावसमाधिमे स्थिर हुए जहाँ न संकल्प था न विकल्प; न प्रवृत्ति थी न निवृत्ति; न मै था न तू.। रह गया केवल अनहदमे शाश्वत शान्तिका साम्राज्य । श्रीगुरु-मिलनके प्रथम दिन ही नीरव निशाके अपार अन्धकारमे उदित ज्ञानके प्रकाशमे इस अनुपम पुरुषार्थीको यो निर्विकल्प दशा सम्प्राप्त हुई। अपने परमोपकारी श्रीगुरुकी निष्कारण कृपा-प्रसादी पाकर श्री सोगानीजीकी आत्मा निहाल हो गई। ___ अपूर्व, अनुपम अमृत-रस पी लेनेसे उसकी मस्तीने उन्हे मदहोश-सा बना दिया । निरन्तर यही भावनाका संवेग वर्तता कि मै भावी सर्व काल पर्यन्त इसी ज्ञानानन्दकी मस्तीमें डूबा ही रहूँ और बस, निरन्तर आनन्दामृत पान करता रहूँ।
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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