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________________ तत्त्वचर्चा १११ ध्रुववस्तुमे परायापन हो जाता है । 'उपयोग 'मेरी' ओर आएगा' - ऐसा होना चाहिए । १७१ * फूल बाग़मे हो या जंगलमे; उसको कोई सूँघो या न सूँघो; उसकी क़ीमत तो स्वयंसे है; कोई सूंघे तो उसकी क़ीमत बढ़ नही जाती, अथवा नही सूंघे तो वह कुम्हला नही जाता इसी तरहसे कोई अपनेको जाने या न जाने उससे अपना मूल्य थोड़ा ही है ? अपना मूल्य तो अपनेसे ही है । कोई मान-सन्मान देवे, न देवे नही है । १७२. सब धूल ही धूल है, उसमे कुछ - — 柒 पूज्य गुरुदेव श्री अपने लिए तो अनन्त तीर्थकरसे अधिक है, क्योकि अपना कार्य होनेमे निमित्त हुए - इसीलीए । दूसरा, उन्होने यह बताया कि, भैया ! “तुम सिद्ध तो क्या ? ... सिद्धसे भी अधिक हो, अनन्त सिद्ध-पर्याये जहाँसे सदैव निकलती रहे, ऐसे तुम हो ।" - ऐसा उत्कृष्ट वाच्य पूज्य गुरुदेवश्रीने बतलाया ! १७३. ※ द्रव्यकी सलामती देखते... पर्याय भी सलामत हो जाती है । १७४. 米 प्रश्न :- ज्ञान तो करना चाहिए न ? स्वभाव उत्तर :- अरे भाई ! ज्ञान अपना स्वभाव है कि नही ? है तो ज्ञान तो होता ही है; 'करना चाहिए' - इसमे तो वज़न पर्यायपर चला जाता है और अक्रिय सारा पड़ा रह जाता है । 'मै वर्तमानमे ही अक्रिय हूँ, कुछ करना ही नही है' - ऐसी दृष्टि होनेपर, ज्ञान-क्रिया सहज उत्पन्न होती है । जानने आदिका विकल्प भी आता है, परन्तु इस पर वज़न नही जाना चाहिए; यह सब गौण रहना चाहिए । १७५. * -
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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