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________________ ११२ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) अपनी कार्य-सीमा परिणाम तक ही है, उससे आगे नही जा सकते है। लहू आदि भोग ही नहीं सकते, लेकिन जो थोड़ी-सी मचकसे राग होता है, वह तो मुझे सहज सुखके आगे विष-तुल्य लगता है । १७६. कोई तो धारणा कर लेते है; कोई धारणा करके रटन करते है। लेकिन भाई ! धारणा करके क्या तेरेको किसीको दिखाना है कि 'मैं जानकार हूँ ? प्रश्न :- लेकिन अपने स्वरूपकी प्राप्ति न हो तब तक निर्णयके लिए तो धारणा चाहिए न ! उत्तर :- धारणा सहज होती है । 'मै धारणा कर लूं' - यह तो बोझा उठाना है। धारणाके ऊपर तो वजन ही नहीं आना चाहिए । धारणा होनी तो चाहिए न ! - ऐसा वज़न नही होना चाहिए; सहज हो तो हो । [ स्वरूपकी प्राप्तिके लिए विधि-विषयक जानकारीकी धारणा होती है, फिर भी ऐसी सही धारणापर वजन जानेवालेके अभिप्रायमे पर्यायका आश्रय करनेका अभिप्राय जो अनादिसे है वह चालू रह जाता है और वह अन्तर्मुखता होनेमे बाधक कारण बन जाता है।] १७७. प्रश्न :- चितन करना (चाहिए) क्या ? उत्तर :- चितन भी भट्टी-सा लगना चाहिए; वह भी दुःखभाव लगे तो वहॉसे हट सकेंगे, नही तो वहॉसे क्यों खिसकेंगे ? मार्गमें आता है तो ठीक; किन्तु उसको दुःखभाव जानना, उसमे एकत्व नही करना । चितन भी चिन्ता है, आकुलता है। 'चितन जहाँसे उठता है... उस भूमिमे जमे रहो।' १७८. [श्रोता ] साक्षीभाव रहना चाहिए ? [श्री सोगानीजी ] 'अपन' तो साक्षीभावमें भी नहीं आते। 'अपन' तो ऐसी भूमि है जहॉसे एक साक्षीभाव तो क्या... अनन्त साक्षीभाव
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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