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________________ ११० द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) भाव हैं, (तो) ये उपादेय कैसे ? १६५. शुद्ध जीवास्तिकायकी दृष्टि बिना, शास्त्रमे जो कथन आते हैं उनकी कितनी हद तक मर्यादा है ? - वह समझमें नहीं आती । और दृष्टि होनेपर, ज्ञानमें सहज ही सब बातें समझमे आ जाती है । १६६. सर्वार्थसिद्धिके देव ३३-३३ सांगर तक चिंतन-मनन करते है फिर भी केवलज्ञान नहीं होता; और इधर अन्तर्मुहूर्त एकाग्रता होनेपर केवलज्ञान हो जाता है । जाननेसे (जानपनेसे) प्रयोजन-सिद्धि नही होती; लीनतासे सिद्धि होती है। [ मोक्षमार्गमे प्रयोजनकी सिद्धिमे मात्र पुरुषार्थका ही अधिकार है । ज्ञानकी विशालता और सूक्ष्मता पुरुषार्थका कारण नहीं होती । किन्तु ज्ञानकी स्वरूपग्रहणशक्ति जितनी बढ़ती है उतना ही पुरुषार्थ साथ साथ बढ़ता है। ] १६७. जिसकी जो रुचि होती है उसको उसी रसकी मुख्यता होती है इसीसे मरण-समय भी उसी रसकी उग्रता हो जाती है । १६८. अशुद्धपर्याय (अंश)का मुख बाहरकी ओर है; और शुद्धपर्याय (अंश)का मुख अपनी ओर है; दोनोके मुंहकी दिशा विरुद्ध है, इसीसे वे सहज ही भिन्न दिखते है । १६९. यहाँ तो महाराजसाहबने भूमिका तैयार कर दी है। बस ! अब तो थोड़ा-सा सुखका बीज बो देना... जिससे महा आनन्द होवे । १७०. प्रश्न :- उपयोगको अन्दरमें वालनेकी [ अन्तर्मुख करनेकी ] बात उत्तर :- इसमे भी उपयोगमें [- पर्यायमे ] अपनापन, और अपनी
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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