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________________ प्रस्तावनी ५१ हैं। हाँ जीवके विविध भाव कर्मके निमित्तसे होते हैं और वे कहीं कहीं चाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमें कारण पढते हैं इतनी बात अवश्य है। नैयायिक दर्शन-पद्यपि स्थिति ऐसी है तो भी नैयायिक कार्यमात्रके प्रति कर्मको कारण मानते हैं। वे कर्मको जीवनिष्ठ मानते हैं। टनका मत है कि चेतनगत जितनी विषमताएँ हैं उनका कारण कर्म तो है ही। साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकारकी विपमनाओंका और टनके न्यूनाधिक सयोगोंका भी जनक है। उनके मतमे जगतमें द्वयणुक आदि जितने भी कार्य होते हैं वे किसी न किमी के उपभोगके योग्य होनेसे उनका कर्ता कर्म ही है। नैयायिकोंने तीन प्रकारके कारण माने हैं-समवायीकारण, अपमवायीकारण और निमित्तकारण। जिस द्रव्यमें कार्य पैदा होता है वह दव्य उस कार्य के प्रति समवायीकारण है। सयोग असमवायीकारण है। तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्तकारण है। इसमें भी काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्रके प्रति निमित्तकारण हैं। इनकी सहायता के बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। ईश्वर भोर कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण क्या है इसका खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है कि जितने कार्य होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं इसलिये ईश्वर सबका साधारण कारण है। इस पर यह प्रश्न होता है कि जब सयका कर्ता ईश्वर है तब फिर उसने सबको एक-सा क्यों नहीं बनाया । वह सबको एकपे सुख, एकसे भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था। स्वर्ग मोक्षका अधिकारी भी सबको एकसा बना सकता था । दुखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियोंकी उसे रचना ही नहीं करनी थी। उसने ऐसा क्यों नहीं किया ? जगवमें तो विषमता ही विषमता दिखलाई देती है। इसका अनुभव सभीको होता है। क्या जीवधारी और क्या नड़ जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव भोर जाति जुदी-जुदी हैं। एकका
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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