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________________ ५० सप्ततिकाप्रकरण दिया है इसलिये यहाँ इस प्रकारका भेद नहीं दिखाई देता है फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो है ही। सचमुच में पुण्य और पाप तो वह है नो इन वाह्य व्यवस्थाओं के परे हैं और वह है आध्यात्मिक । जैन फर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य पापका निर्देश करता है। शंका-यदि वाह्य सामग्रीका लामालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवों को इसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? समाधान-बाह्य सामग्रीका सद्भाव नहीं है वहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इपकी प्राप्ति जड़ चेतन दोनोंको होती है। क्योंकि तिजोड़ीमें भी धन रखा रहता है इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़के रागादि भाव नहीं होता और चेतनके होता है इसलिये वही उसमें ममकार और महकार भाव करता है। शंका-यदि वाह्य सामग्रीका लाभालाम पुण्य पापका फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप पुण्यका फल मानना ही पड़ता है ? समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप पुण्यके उदयका निमित्त भले ही हो जाय पर स्वयं यह पाप पुण्यका फल नहीं है । जिस प्रकार वाह्य सामग्री अपने अपने कारणोंसे प्राप्त होती है उसी प्रकार सरोगता और नीरोगता भी अपने अपने कारणोंसे प्राप्त होती है। इसे पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है। शंका-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण हैं ? समाधान-अस्वास्थ्यकर माहार, विहार व संगति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना आदि नीरोगता के कारण हैं। इस प्रकार कर्मको कार्यमर्यादाका विचार करनेपर यह स्पष्ट हो वाता है कि कर्म वारा सम्पत्तिफे संयोग वियोगका कारण नहीं है। उसकी वो मर्यादा उतनी ही है जिसका निर्देश हम पहले कर आये
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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