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________________ ५२ सप्ततिकाप्रकरण ↑ मेल दूसरेसे नहीं खाता | मनुष्यको ही लीजिए। एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्य में बड़ा अन्तर है । एक सुखी है तो दूसरा दुखी एकके पास सम्पत्तिका विपुल भण्डार है तो दूसरा दाने-दाने को. भटकता फिरता है । एक सातिशय बुद्धिवाला है। तो दूसरा निरा मूर्ख । मात्स्यन्यायका तो सर्वत्र ही बोलबाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाना चाहती है । यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है, धर्म और धर्मायतनों में भी इस भेदने श्रड्डा जमा लिया है। यदि ईश्वर ने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिरों में बैठा है तो उस तक सबको क्यों नहीं जाने " दिया जाता है । क्या उन दलालोंका, जो दूसरेको मन्दिर में जानेसे रोकते हैं, उसीने निर्माण किया है ? ऐसा क्यों है ? जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया है और वह करुणामय तथा सर्व- शक्तिमान है तव फिर उसने जगतकी ऐसी चिपम रचना क्यों की ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिकोंने कर्मको स्वीकार करके दिया है। वे जगत की इस विषमताका कारण कर्म मानते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर J , जगतका कर्ता है तो सही, पर उसने इसकी रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। इसमें उसका रत्ती भर भी दोष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं । यदि अच्छे कर्म करता है तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । इसीसे कविवर तुलसीदासजीने अपने रामचरितमानस में कहा है, करम प्रधान विश्व करि राखा । 'जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ 1 7,7 1 ईश्वरवादको मानकर जो प्रश्न उठ खड़ा होता है, तुलसीदासजीने उस प्रश्नका -इस छन्दके उत्तरार्ध द्वारा समर्थन करनेका प्रयत्न किया है । नैयायिक जन्यमात्र के प्रति कर्मको साधारण कारण मानते हैं। 2 ܙ •
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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