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________________ ३२२ . सप्तविकाप्रकरण प्रतिपादन करनेवाले अन्य वर्तमानकालमें नहीं पाये जाते हैं। अब उदयसे उतीरगामें विशेषताके बतलानेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं उदयस्सुदीरणाए सामित्ताओ न विजइ विसेसो । मोत्तूण य इगुयालं सेमाणं सन्चपगईणं ।।५४ ।। अर्थ-इकतालीस प्रकृतियाँको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोके उच्य और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेपता नहीं है। विशेषार्थ-काल प्रान कर्मपरमाणुओंके अनुभव करनेको उदय कहते हैं और उड्यावलिके वाहिर स्थित कर्म परमाणुओंको कपायसहित या कपायरहित योग संबावाले वीर्यविशेषके द्वारा उन्यावलिमें लाकर उनका उदयप्राप्त कर्म परमाणुओंके साथ अनुभव करने को उदीरणा कहते हैं इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मपरमाणुओं का अनुभवन उदय और उद्दीपणा इन दोनॉन लिया गया है। यदि इनमे अन्तर है तो कालत्राप्त और अकालप्राप्त कर्मपरमाणुओका है । उदयमें काल प्राप्त कर्मपरमाणु रहते हैं और उदीरणामें अकाल १. दिगम्बर परम्परामें मोहनीयका अविका वर्णन कसायपाहुइनें और आने को बन्धन अधिकच वर्णन महारन्वमें मिलता है। ओ पूर्वोक सूचनानुसार सांगोपांग है। पटसन्दागममें मी यथायोग्य वर्णन मिलता है। जो जिज्ञासु इस विषयको गहराईको सममाना चाहते हैं वे उत्त प्रन्यों का स्वाध्याय अवश्य करें। (१) 'उदयरसुदीरणस्स य मामित्तादो ण विचदि सियो गो० वर्म-' गा.१५८ ।' उदो उदोणाए तुल्लो मोत्तण एचत्तालं । भावरणविग्रसंत्रसपलोमरेए य दिष्टिगं ।' कर्म प्र० उद० गा० । -
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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