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________________ ३२३ उदीरणाकी विशेषता प्राप्त कर्मपरमाणु रहते हैं। तो भी सामान्य नियम यह है कि जहाँ जिस कर्मका उदय होता है वहां उसको उदीरणा अवश्य होती है। किन्तु इसके सात अपवाद हैं-पहला यह है कि जिनका म्वोदयसे सत्त्वनाश होता है उनकी उदीरणाव्युच्छित्ति एक श्रावलि काल पहले हो जाती है और उदयव्युच्छित्ति एक आवलि काल बाद होती है। दूसरा अपवाद यह है कि वेदनीय और मनुष्यायुकी उदीरणा प्रमत्तसयत गुणस्थान तक ही होती है जब कि इनका उदय अयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है। नीसरा अपवाद यह है कि जिन प्रकृतियोंका अयोगिकेवली गुणम्थानमें उदय है उनकी उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थान तक हो होती है । चोथा अपवाद यह है कि चारो आयुकर्मोंका अपने . अपने भवकी अन्तिम आवलिमें उदय ही होता है उदीरणा नहीं। पांचवाँ अपवाद यह है कि निद्रादिक पाचका शरीर पर्याप्तिके वाद इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उन्य हो होता है उदीरणा नहीं होती। छठा अपवाद यह है कि अतरकरण करनेके बाद प्रथम स्थितिमे एक श्रावलि काल शेष रहने पर मिथ्यात्वका, क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके सम्यक्त्वका और उपशमश्रोणिमें जो जिस वेदके उदयसे उमशश्रेणि पर चढ़ा है उसके उस वेदका उदय ही होता है उदीरणा नहीं । तथा सातवा अपवाद यह है कि उपशम श्रेणिके सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमे भी एक श्रावलिकाल शेप रहने पर सूक्ष्म लोभका उदय ही होता है उदीरणा नहीं। अव यदि इन सात अपवादवाली प्रकृतियोका मकलन किया जाता है तो वे कुल ४१ होती हैं। हो सबब है कि ग्रन्थकारने ४१ प्रकृतियोको छोड़कर शेप सब प्रकृतियोके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेपता नहीं चतलाई है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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