SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठ अनुयोगोमें उक्त कथनकी प्रतिज्ञा ३२१ शब्द विरह या व्यवधानवाची है अतः इस अनुयोगद्वारमे यह बतलाया जाता है कि विवक्षित धर्मका सामान्यरूपसे या किस मार्गणामें कितने कालतक अन्तर रहता या नहीं रहता। भाव अनुयोगद्वारमें उस विवक्षित धर्मके भावका विचार किया जाता है और अल्पवहुत्व अनुयोगद्वारमे उसके अल्पवहुत्वका विचार किया जाता है। प्रकृतमें ग्रन्थकार सूचना करते हैं कि इसी प्रकार बन्ध, उदय और सत्तारूप कर्मोंका तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदोका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे गति आदि मार्गणाओके द्वारा आठ अनुयोगद्वारोमे विवेचन कर लेना चाहिये। यहाँ गाणमें जो 'इति' शब्द आया है वह पहले वणन किये गये विपयका निर्देश करता है। जिससे उक्त अर्थ ध्वनित होता है। किन्तु इस विषयमे मलयगिरि आचार्यका वक्तव्य है कि यद्यपि आठो कर्मोंके सदनुयोगद्वारका वर्णन गुणस्थानोमें सामान्यरूपसे पहले किया ही है परन्तु सख्या आदि सात अनुयोगद्वारीका व्याख्यान कर्मप्रकृतिप्राभृत आदि ग्रन्थोको देखकर करना चाहिये। किन्तु वे कर्मप्रकृतिप्राभृत आदि ग्रन्थ वर्तमानकालमै उपलब्ध नहीं हैं इसलिये इन संख्यादि अनुयोगद्वारोका व्याख्यान करना कठिन है। फिर भी जो प्रत्युतपन्न मति विद्वान् हैं वे पूर्वापर सम्बन्धको देखकर उनका अवश्य व्याख्यान करें। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि उक्त गाथामें जिस विपयकी सूचना की गई है उस विषयका
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy