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________________ प्रस्तावना इसे रस रहित, गन्धरहित, रूपरहित, स्पर्शरहित, अव्यक्त और चेतना गुणवाला बतलाया है । यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्रमें जीवको उपयोग लक्षणवाला लिखा है पर इससे उक्त कथनका ही समर्थन होता है। ज्ञान और दर्शन ये चेतनाके भेद हैं। उपयोग शब्दसे इन्हींका बोध होता है। ज्ञान और दर्शन यह जीवका निज स्वरूप है जो सदा काल भवस्थित रहता है । जीवमात्रमें यह सदा पाया जाता है। इसका कभी भी अभाव नहीं होता। जो तिर्यच योनिमें भी निकृष्टतम योनिमें विद्यमान है उसके भी यह पाया जाता है और जो परम उपास्य देवत्वको प्राप्त है उसके भी यह पाया जाता है। यह सबके पाया जाता है। ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसके यह नहीं पाया जाता है। जीवके सिवा ऐसे बहुतसे पदार्थ हैं जिनमें ज्ञान दर्शन नहीं पाया जाता। वैज्ञानिकोंने ऐसे जड पदार्थोकी संख्या कितनी ही क्यों न बतलाई हो पर जैनदर्शनमें वर्गीकरण करके ऐसे पदार्थ पांच बतलाये गये हैं जो ज्ञानदर्शनसे रहित है। वैज्ञानिकों के द्वारा बतलाये गये सब जढ तत्त्वोंका समावेश इन पाँच तत्त्वों में हो जाता है। वे पाँच तत्व ये हैं-पुदगल, धर्म, अधर्म, भाकाश और काल । इनमें जीव तस्वके मिला देने पर कुल छह तत्व होते हैं। जैन दर्शन इन्हें द्रव्य शब्दसे पुकारता है। ___जीव द्रव्यका स्वरूप पहले बतलाया ही है। शेष द्रव्योंका स्वरूप निम्न प्रकार है जिममें स्पर्श, रम, गन्ध और रूप पाया जाता है इसे पुद्गले कहते हैं। जैन दर्शनमें स्पर्शादिककी मूर्त संज्ञा है इसलिये वह मूर्त (१) 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्त चेदणागुणमसई । जाण अलिंगग्गहण जीवमणिहिट्ठसठाणं ।'-मयप्रामृत गाथा ४६ । (२) उपयोगो लक्षणम् । (३) 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला.।-त० सू० ५-२३ ॥
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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