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________________ सप्ततिकाप्रकरण माना गया है। किन्तु शेष द्रव्यों में ये स्पर्शादिक नहीं पाये जाते इसलिये वे अमूर्त हैं। जो गमन करते हुए जीव और पुदगलोंके गमन करनेमें सहायता प्रदान करता है उसे धर्म ट्रेव्य कहते हैं। अधर्म द्रव्य का स्वरूप इससे उलटा है। यह ठहरे हुए जीव और पुदगलोंके ठहरने में सहायता प्रदान करता है। इन दोनों द्रव्योंके स्वरूपका स्पष्टीकरण करनेके लिये जल और छायाका दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे मछलीके गमन करने में बल और पथिकके ठहरनेमें छाया सहायता प्रदान करते हैं ठीक यही स्वभाव क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका है। जो वस्तुकी पुरानी अवस्थाके व्यय और न्यूतन अवस्थाके उत्पादमें सहायता प्रदान करता है उसे काल दव्यं कहते हैं । और प्रत्येक पदार्थके ठहरनेके लिये जो अवकाश प्रदान करता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। ____ इनमेंसे धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ये चार द्रव्य सदा अविकारी माने गये हैं। निमित्तवश इनके स्वभावमें कभी भी विपरिणाम नहीं होता। किन्तु जीव और पुदगल ये ऐसे द्रव्य हैं जो अविकारी और विकारी दोनों प्रकारके होते हैं। जब ये अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट रहते हैं तव विकारी होते हैं और इसके प्रभावमें अविकारी होते हैं। इस हिसाबसे जीव और पुदगलके दो-दो भेद हो जाते हैं। संसारी और मुक्त ये जीवके दो भेद हैं। तथा भणु और स्कन्ध ये पुदगलके दो भेद हैं। जीव मुक्त भवस्थामें अविकारी हैं और संपारी अवस्थामें विकारी। पुदगल अणु अवस्थामें अविकारी हैं और स्कन्ध अवस्थामें विकारी । तात्पर्य यह है कि जीव और पुदगल जब तक अन्य व्यसे सश्लिष्ट रहते हैं तब तक उस संश्लेशके कारण उनके स्वभावमें विपरिणति हुमा करती है इसलिये वे उस समय विकारी रहते हैं और संश्लेशके हटते ही वे अविकारी हो जाते है। (१) द्रन्य० गा० १८ । (२) द्रव्य० गा० १६1 (३) द्रव्य गा. २० (४) य. गा०.२२ ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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