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________________ सप्ततिकाप्रकरण गाथा द्वारा चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शन मोहनीय इनके उपशमना और क्षपणाके स्वामीका निर्देश करके ६४वीं गाथा द्वारा क्रोधादि चार की क्षपणाके विशेष नियमकी सूचना की गई है। अयोगीके द्विचरम समयमें किन प्रकृतियोंका क्षय होता है यह ६५वीं गाथामें बतलाया गया है। अयोगी जिन कितनी प्रकृतियोंका वेदन करते हैं यह ६६वीं गाथामें बतलाया गया है। ६७वीं गाधामें नामकर्मकी वे ९ प्रकृतियाँ गिनाई हैं जिनका उदय अयोगीक होता है। भयोगीके अन्तिम समयमें कितनी प्रकृतियोंका उदय होता है यह ६८वीं गाया बतलाती है। ६९वीं गाथामें अयोगीके अन्तिम समयमें जिन प्रकृतियोंका क्षय होता है उनका निर्देश किया है। भागे ७०वीं गाथामें सिद्धों के सिद्ध सुखका निर्देश करके उपसहार स्वरूप ७१वीं गाया भाई है । और ७२वीं गाया लघुता प्रकट करके अन्य समाप्त किया गया है। यह प्रन्यका सक्षिप्त परिचय है। अब आगे प्रकृनोपयोगी समझ कर कर्म तत्वका संक्षेग्में विचार ५ कर्म-मीमांसा कर्मके विषयमें तुलनात्मक ढगसे या स्वतंत्र भावसे अनेक लेखकोंने बहुन कुछ लिखा है। तथापि जैन दर्शनने कर्मको जिस रूपमें स्वीकार किया है वह दृष्टिकोण सर्वथा लुप्त होता जा रहा है। जैन कर्मवाटमें ईश्वरवादकी छाया माती जा रही है। यह भूल वर्तमान लेखक ही कर रहे हैं ऐसी बात नहीं है पिछले लेखकोंसे भी ऐसी भूल हुई है। इसी दोपका परिमार्जन करनेके लिये स्वतंत्र भावसे इस विषय पर लिखना जरूरी समझकर यहाँ संक्षेपमें इस विषयकी मीमांसा की जा रही है।" छह द्रव्योंका स्वरूप निर्देश-भारतीय सब आस्तिक दर्शनोंने लीवके अस्तित्वको स्वीकार किया है जैनदर्शनमें इसकी चर्चा विशेष रूपसे की गई है। समप प्रामृनमें जीवके स्वरूपका निर्देश करते हुए
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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