SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना भर दिया गया है। इतने लघुकाय प्रन्यमें इतने विशाल और गहन विषयका विवेचन कर देना हर किसीका काम नहीं है। इससे अन्यकर्ता और अन्य दोनोंकी ही महानता सिद्ध होती है। इसकी प्रथम और दुमरी गाथामें विपयकी सूचना की गई है। तीसरी गाथामें आठ मूल कर्मों के संवेध भंग पतलाकर चौथी और पांचवीं गाथामें क्रमसे उनका जीवसमास और गुणस्थानों में विवेचन किया गया है। छठी गाथामें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके अवान्तर भेदोंके सवेध भग बतलाये है। सातवींसे लेकर नौंवीके पूर्वार्धतक ढाई गाथामें दर्शनावरणके उत्तर भेदोंके संवेध भग बतलाये हैं। नौवी गाथाके उत्तरार्धमे वेदनीय, प्रायु और गोत्र कर्मके सवेध भंगोंके कहनेकी सूचना मात्र करके मोहनीयके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। दसर्वीसे लेकर तेईसवीं गाथातक १४ गाथाओं द्वारा मोहनीयके और २४वीं गाथासे लेकर ३२वीं गाथातक ९ गाथाओं द्वारा नामकर्मके बन्धादि स्थानों व सवेध भगोंका विचार किया गया है । आगे ३३वी गाथासे लेकर ५२वीं गाथातफ २० गाथाओं द्वारा भवान्तर प्रकृतियोंके उक्त संवेध मंगोंको जीवसमासों और गुणस्थानों में घटित करके बतलाया गया है। ५३वीं गाथामें गति आदि मार्गणाओं के साथ सत् आदि भाउ अनुयोग द्वारों में उन्हें घटित करनेकी सूचना की है। इसके भागे प्रकरण बदल जाता है। ५४वी गाथामें उदयसे उदरिणाके स्वामीमें कितनी विशेषता है इसका निर्देश करके ५५वीं गाथामें वे ४१ प्रकृतियां बतलाई है जिनमें विशेषता है। ५६वीं से लेकर ५९वीं तक ४ गाथाओं द्वारा किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है यह बतलाया गया है। ६०वी प्रतिज्ञा गाथा है। इसमें गति श्रादि मार्गणाओं में बन्धस्वामित्वके जान लेनेकी प्रतिक्षा की गई है। ६१वीं गाथामें यह बतलाया है कि तीर्थंकर प्रकृति, देवायु और नरकायु इनका सत्व तीन तीन गतियों में ही होता है। किन्तु इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका सरव सव गतियोंमें पाया जाता है। ६२वीं और ६३वीं
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy