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________________ २६ सप्ततिकाप्रकरण है। ये चन्द्र महतर कौन है, इसका निर्णय करना तो कठिन है । कदाचित् ये पंचसह कर्ता चन्द्रर्पि महत्तर हो सकते है । यदि पचसंग्रह और शतककी चूर्णिके कर्ता एक ही व्यक्ति हैं तो यह अनुमान किया जा सकता है कि दिगम्बर परम्परा के पंचसंग्रहका सकलन चन्द्रर्षिमहत्तरके पंचग्रहके पहले हो गया था । इस प्रकार प्राकृत पंचसग्रह की प्राचीनता के अवगत हो जाने पर उसमें निबद्ध सप्ततिकाकी प्राचीनता तो सुतरां सिद्ध हो जाती है । प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थमें प० हीरालाल जो सिद्धान्त शास्त्री का 'प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रह तथा उनका श्राधार' शीर्षक एक लेख छपा है । उसमें उन्होंने प्राकृत पचसग्रह की सप्ततिकाका भाधार प्रस्तुत Rafaerat बतलाया है । किन्तु जबतक इसकी पुष्टि में कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता तब तक ऐसा निष्कर्ष निकालना कठिन है । अभी तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसी एक को देखकर दूसरी सप्ततिका लिखी गई है । ४ - विषय परिचय afone विषय सक्षेप में उसकी प्रथम गाथामें दिया है। इसमें भाठों मूल कर्मों व भवान्तर भेदों के बन्धस्थान, उदयस्थान और सरदस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे व जीवसमास और गुणस्थानोंके श्राश्रयसे विवेचन करके अन्त में उपशम विधि और क्षपणा विधि बतलाई गई है । कर्मोंकी यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमेंसे तीन मुख्य हैं - बन्ध, उदय और सत्व । शेष अवस्थाओंका इन तीनमें अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये यदि यह कहा जाय कि कर्मोकी विविध अवस्थाओं और उनके भेदका इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है भत्युक्ति न होगी । सचमुच में प्रन्थका जितना परिमाण है करनेकी शैलीकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। तो कोई उसे देखते हुए वर्णन सागर का जलं गागर में.
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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