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________________ नामकर्मके उदयस्थान १४९ और ३० ये पांच उदयम्यान होते हैं। पहले वारह ध्रुवोदय प्रकृतियाँ चतला आये हैं उनमे मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, वेक्रिय शरीर, वक्रिय आगोपाग, समचतुरस्रमस्थान, उपघात, त्रम, वादर, पर्याप्तक प्रत्येक, सुभग और दुर्भग इनमेंसे कोई एक, अादेव और अनादेय इनमेसे कोई एक तथा यश कीर्ति और अयश कीर्ति इनमेमे कोई एक इन तेरह प्रकृतियोके मिला देने पर २५ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ सुभग और दुर्भगका. श्रादेय और अनादेवा तथा यश कीर्ति और अयश कीर्तिका विकल्पसे उदय होता है अत आठ भग हुए । इतनी विशेषता है कि वैक्रिय शरीर को करनेवाले देशविन्न और सयनोके प्रशम्न प्रकृतियोका ही उदय होता है। इस प्रकार २५ प्रकृतिक उदयस्थानके कुल आठ मग हुए। तदनन्तर शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हा जीवके पराघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृनियो के मिला देने पर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहले के समान पाठ भग होते हैं। तदनन्तर प्राणापान पर्याप्तिम पर्याप्त हुए जीवके उच्छामके मिलानेपर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी आठ भग होते है। अथवा उत्तर वैक्रिय शरीरको करनेवाले मयतोके शरीर पर्याप्निसे पर्याप्त होने पर पूर्वोक्त २७ प्रकृतिक उदयस्थानमें उद्योतके मिलाने पर २८ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसका एक ही भग है, क्योकि ऐसे मयतोके दुर्भग, अनादेय और अयश कीर्ति इन अशुभ प्रकृतियोका उदय नहीं होता। इस प्रकार २८ प्रकृतिक उदयस्थानके कुन भग नौ हुए । तदनन्तर भापा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके उच्छास सहित २८ प्रकृतिक उदयस्थान मे सुम्बरके मिलाने पर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पहलेके समान आठ भंग होते हैं। अथवा, संयतोंके स्वरके स्थानमे उद्योतके मिलाने कुन भग नौ हार नहीं होता। इस बार अयश कीतिर
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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