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________________ १४८ सप्ततिकाप्रकरण चाहिये। किन्तु मनुष्योंके तिथंचगति और तिर्यच गत्यानुपूर्वकि म्यानमे मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका उदय कहना चाहिये। तथा २९ और ३० प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत रहित कहना चाहिये, क्योंकि वैक्रिय और आहारक संयतोंको छोड़कर शेप मनुष्योंके उद्योतका उदय नहीं होता है। इससे तिर्यचौके २९ प्रकृतिक उदयस्थानके जो ११५२ भंग कहे उनके स्थानमे मनुष्योंके कुल ५७६ ही भग प्राप्त होगे। इसी प्रकार तिर्यचौके ३० प्रकृतिक उदयस्थानके जो १७२८ भग कहे, उनके स्थानमें मनुष्योंके कुल ११५२ ही भग प्राप्त होगे। इस प्रकार प्राकृत मनुष्योंके पूर्वोक्त पाँच उदयस्थानोके कुल भग ९+ २८९+ ५७६+ ५७६+ ११५२%२६०२ होते हैं। तथा वैक्रिय शरीरको करनेवाले मनुष्योके २५, २७, २८, २९ (१) गोम्मटमार कर्मकाण्ड में वक्रिय शरीर व वकिय प्रांगोपांगका उदय देव और नाकियोंके ही बतलाया है मनुष्यों और तिर्थचोंके नहीं। इसलिये वहाँ वैक्रय शरीरकी अपेनासे मनुष्योंके २५ आदि उदय स्थान और उनके भंगोंका निर्देश नहीं किया है। इसी कारणसे वहाँ वायुकायिक और पन्द्रय तिर्यंच इन जीवोंके भी वैक्यि शरीरको अपेक्षा उदयस्थानों और उनके भगोंका निर्देश नहीं किया है। धवला श्रादि अन्य अन्योंसे भी इसकी पुष्टि होती है। इस सप्ततिका प्रकरणमें यद्यपि एकेन्द्रिय श्रादि जीकि उदयप्रायोग्य नाममकी वन्य प्रकृतियोंका नामनिर्देश नहीं किया है तथापि आचार्य मलपगिरिको टोकासे ऐसा ज्ञात होता है कि वहाँ देवगति और नरक गतिकी उदयप्रायोग्य प्रकृतियोंमें ही वैक्रिय शरीर और वैछिय अगोपांगका ग्रहण किया गया है। इससे यद्यपि ऐसा ज्ञात होता है कि तिर्यंच 'और मनुष्यों वैन्यि शरीर वैक्रिय आंगोपागका उदय नहीं होना चाहिये। तथापि धर्म प्रकृतिके उदीरणा प्रकरणकी गाथा ८ से इस बातका समर्थन होता है कि यथासम्भव तिथंच और मनुष्योंके भी इन दो प्रकृतियोंका उदय व उदारणा होती है। अपेजलाया है मनुष्योर व वैकिय भागोवा
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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