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________________ नामकर्मके वन्यस्यान शरीर कार्मण शरीर, हुण्डसस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपधात, पराघात, उच्छास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्रक, प्रत्येक, अस्थिर अशुभ, दुर्भग, दुवर,अनादेव,अयशः कीर्ति और निर्माण इन अट्ठाईस प्रकृनियोका बन्ध होता है। अतः इनका समुदायल्प एक वन्यस्थान है। यह वन्धस्थान मिथ्याष्टिके ही होता है। यहां सब अशुभ प्रकृतियोका ही बन्ध होता है अत यहां एक ही भंग है। इन तेईस आदि उपर्युक्त वन्धम्यानांके अतिरिक्त एक वन्धन्यान और है जो देवगतिके योग्य प्रकृतियोका बन्धविच्छेद हो जाने पर अपूर्वकरण आदि तीन गुणत्यानोंमें होता है। इसमें केवल यश कीर्तिका ही वन्ध होता है। ___ अव निस बन्धस्थानमें कुल कितने भंग प्राप्त होते हैं इसका विचार करते हैं चउ पणवीसा सोलस नव वाणउईसया य अडयाला। एयालुत्तर छायालसया एकक बंधविहीं ॥ २५ ॥ अर्थ-तेईस आदि वन्यस्यानो मे क्रम से चार, पच्चीस, मोलह, नौ. नौ हजार दौ सौ अड़तालीस, चार हजार छह सौ इकतालीस, एक और एक भंग होते हैं ।।२।। विशेषार्थ-यद्यपि पहले तेईस आदि बन्धस्थानोका विवेचन करते समय भंगों का भी उल्लेख किया है पर उससे प्रत्येक वन्धस्थानके समुच्चयरूप भंगोंका वोध नहीं होता, अतः प्रत्येक वन्धम्यानके समुच्चयरूप भंगांका वोध करानेके लिये यह गाथा आई है। यद्यपि सामान्यसे तो गाथामें ही ववला दिया है कि
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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