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________________ १३४ सप्ततिकाप्रकरण यहाँ भी २८ प्रकृतिक वन्यस्यानके समान आठ भंग होते हैं। नीस प्रकृतिक वन्यन्यानमें-देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जानि, वैक्रियशरीर, वैक्रिय आंगोपांग.आहारक शरीर, आहारक आंगोपाग, तैजम शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संन्यान, वर्णादि चार.अगुल्लघु उपघात.पराघात, उच्छ्वास प्रशस्त विहायोगति,बस, बादर,पर्याप्रक, प्रत्येक,शुभ,न्थिर, सुभग, मुस्वर, आदेय, यश चीर्ति और निर्माण इन तोस प्रकृतियाँका वन्ध होता है, अत: इनका समुदायल्प एक न्यान होता है। इस स्थानमें सब शुभ कर्मोका ही बंध होता है अत' यहां एक ही भंग प्राप्त होता है। इस वन्धन्यानमें एक तीर्थकर प्रकृतिके मिला देने पर इकतीस प्रकृतिक वन्यस्थान होता है। यहाँ भी एक भंग होता है। इस प्रकार देवगतिक योग चार वन्धस्थानों में कुल भंग १८ होते हैं। कहा भी है 'अट्ठह एच एचक अट्ठार देवजोगेसु ।' __ अर्थात् 'देवगतिके योग्य २८, २९,३० और ३१ इन वन्धस्थानों में क्रमशः आठ, पाठ, एक और एक भंग होते हैं। नरक गतिके योग्य प्रकृतियों का वध करनेवाले जीवके अट्ठाईस प्रकृतिक एक वन्वत्थान होता है। इसमें नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वैनिय शरीर, वैक्रिय आंगोपांग, तैजस (१) नत्य इमं अहावीपाए हाणं गिरयगदी पंत्रिदियजादी वेवियनकन्मइयसरीरं हुंउसठणं वेटवियरोरत्रंगोवंग वगवरसफसं णिरयगडपापोगाणुपुवी अगुत्थलहु-ववाद-परघाद-उत्सासं अप्यसत्यविहायगई वस-वादर पनच-यत्तेयसरीर-अथिर-अमुह-दुहग दुस्सर-अणादेव अजमक्रित्तिणिमिणणामं । एदावि अहावीपाए पयहीणमेन्हि व हाणं n णिरयगदि पंचिंदिर पबत्तसंयुत्तं ववमाणस तं मिछादिहिस्स-जो० . हा० सू० ६-१२। लाकमानापुब्दी अगुरुनाल अधिर-अनुह-जुहा वाह व हाणं । हाल
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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