SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वेदनीय कर्मके संवेध भंग और दोनोका सत्त्व इस प्रकार वन्धके रहते हुए चार भंग होते हैं । इनमे से प्रारम्भके दो भग मिथ्यावष्टि गुणस्थानसे लेकर प्रमत्तसयत गुणग्थान तक होते हैं, क्योकि प्रमत्तसंयतमें असाताकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे आगे इसका वन्ध नहीं होता। अत अप्रमत्तसयत आदि गुणस्थानोमें ये दो भग नहीं प्राप्त होते । किन्तु अन्तके दो भग मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणम्थान तक होते है, क्योकि साताका बन्ध सयोगिकेवली गुणस्थान तक ही होता है । तथा वन्धके अभावमें (१) असाताका उदय और दोनोका सत्त्व, (२) साताका उदय और दोनोंका सत्त्व (३) असाताका उदय और असाताका सत्त्व तथा (४) साता का उदय और साताका सत्त्व ये चार भङ्ग होते हैं। इनमें से प्रारम्भके दो भङ्ग अयोगिकेवली गुणस्थानमे द्विचरम समय तक होते हैं, क्योकि अयोगिकेवलीके द्विचरम समय तक सत्ता दोनोकी पाई जाती है। तथा तीसरा और चौथा भङ्ग चरम समयमें होता है। जिसके द्विचरम समयमे साताका क्षय हो गया है उसके अन्तिम समयमें तीसरा भङ्ग पाया जाता है और जिसके द्विचरम समयमें असाताका क्षय हो गया है उसके अन्तिम समयमें चौथा भग पाया जाता है। इस प्रकार वेदनीय कर्मके कुल भङ्ग ओठ होते है। अव उपर्युक्त . विशेषताओके साथ इन भङ्गोका ज्ञापक कोष्ठक देते है (१) 'वेयणिये अट्ट भगा॥'-गो० कर्म० गा० ६५१॥
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy