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________________ सप्ततिकाप्रकरण ६. वेदनीय कर्मक संवेध भंग वंदनीय कर्मके दो भेद हैं-साता और असाता। इनमें से एक कालमें किसी एकका वन्ध और किसी एकका ही उदय होता है, क्योंकि ये दोनो परम्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं, अत. इनका एक साथ वन्य और उदय सम्भव नहीं। किन्तु किमी एक प्रकृतिकी सत्त्वव्युच्छित्ति होने नकमत्ता ढोना प्रकृतियोंकी पाई जाती है। पर किसी एककी सत्वब्युच्छित्ति हो जाने पर किसी एककी ही सत्ता पाई जाती है। इतनं कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदनीयकी उनर प्रकृतियोंकी अपेक्षा बन्धस्थान और उदयस्थान सर्वत्र एक प्रकृतिक ही होता है किन्तु सत्त्वस्थान दो प्रकृतिक और एकप्रकृतिक इस प्रकार दो होते हैं। अब इनके सवेधभंग बतलाते हैं-(१) असाताका बन्ध, असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व (२) असाताका वन्ध, साताका उदय और दोनोका सत्त्व (३) साताका बन्ध, साताका उदय और दोनोका सत्त्व (४) माताका बन्ध, असाताका उदय (१) 'तेरसमएस सायासायाण बंधवाच्छेश्रो। सतटइण्याइ पुणो सायासायाइ सम्बेसु ॥'-पञ्चसं० सप्तति० गा० १७ । 'सादासादेवदरं वंधुदया होति संभवहाणे। दो सत्त जोगि ति य चरमे उदयागदं सत्त ।।' मो० कर्म० गा० ६३३ 1 (.) 'वघड उइण्ण्यं वि य इयरं वा दो वि सत ठभंगो। सतमुइण्णमबंधे दो दोणि दुसत इड अट्ठ॥पञ्चसं. सप्तति० गा० १८ । 'छठो ति चार भगा दो भगा होति नाव जोगिक्षिणे। चटमंगाऽजोगिनिणे ठाण पडि वेयणीयस्स-॥-गो० कर्म० गा० १३४ ।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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