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________________ ९० उत्पन्न करनेवाला 'सत्यवचन' उत्तम ताम्बूलके (पानके ) समान है। तथा इस भगवतके मतमें मुनिरूपी भौरोंको प्रसन्न करनेके कारण तथा विचित्र प्रकारके भक्तिविन्याससे (रचनासे ) गूंथे हुए होनेके कारण जो मनोहर फूलोंके हारोंके आकारको धारण करते हैं, ऐसे शीलके अठारह हजार अंग अपनी सुगंधिकी अधिकतासे दशों दिशाओंको व्याप्त करते हैं। तथा इस परमेश्वरके मतमें गोशीर चन्दन आदि विलेपनोंके स्वरूपको धारण करनेवाला सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व और कषायोंके संतापसे तप्त हुए भव्य जीवोंके शरीरोंको शान्त करता है। क्योंकि इस मतमें जो कि सर्वज्ञका कहा हुआ है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन रत्न जिसमें प्रधान हैं; जो जीव रहते हैं उन महाभाग्यशालियोंने नरकरूप अन्धकूपको ढंक दिया हैं, तिर्यंचगतिरूपी बन्दीगृहको (जैलको) तोड़ डाला है, कुमानुषगतिके (कुभोग भूमिके मनुष्योंके ) दुःखोंको नष्ट कर दिया है, कुदेवोंकी पर्यायमें जो मानसिक दुःख होते हैं, उनका मर्दन कर डाला है, मिथ्यात्वरूपी वेतालका (प्रेतका) प्रलय कर दिया है, रागादि शत्रुओंको गतिहीन कर दिया है, कर्मोंके अजीर्णको प्रायः पचा डाला है, वृद्धावस्थाके विकारोंको विनाश कर दिया है, मृत्युके भयको नष्ट कर डाला है, और स्वर्ग तथा मोक्षके सुखोंको हस्तगत कर लिया है । अथवा उन भगवानके मतमें रहनेवाले जीवोंने सांसारिक सुखोंका तिरस्कार किया है, संसारका सारा प्रपंच हेयबुद्धिसे (त्यागभावसे ) ग्रहण किया है । अर्थात् प्रपंच तो है, परन्तु उसमें प्रीतिभाव नहीं है। अपने अन्तःकरणको मोक्षके ध्यानमें ही एकतान (लवलीन) कर रक्खा है और उन्हें परमपदके (मोक्षके) पानेमें कुछ भी शंका नहीं रही है। क्योंकि वे जानते हैं कि, उपाय उपेयव्यभिचारी नहीं होता है। अर्थात् जिसके लिये प्रयत्न
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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