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________________ ८९ र्थात् मिथ्यात्वमोहनीय कर्मकी गांठको खोलता है और इसे स्वकर्मविवर द्वारपाल सर्वज्ञशासनरूपी मन्दिरमें प्रवेश करता है । और तब यह उ.पर कहे हुए सम्पूर्ण विशेषणोंसे युक्त राजमन्दिरको देखता है । अब पहले कहे हुए राजभवनके सत्र विशेषणोंको सर्वज्ञशासनरूपी मंदिरमें घटित करते हैं:__इस मॉनींद्र शासनमें अर्थात् मुनिप्रणीत जैनधर्ममें अज्ञान अंधकारके पटलोंको दूर करनेवाला, नानाप्रकारके रत्नोंकी आकृतियोंका धारण करनेवाला, और अपने शोभनीक निर्मल प्रकाशसे तीनों लोकरूपी भवनको प्रकाशित करनेवाला 'केवलज्ञान' दिखलाई देता है। और इस भगवत्प्रणीत प्रवचनमें आमर्प, औषधि, आशीविप, आदि अनेक ऋद्धियां जिन्हें कि वे प्राप्त होती हैं, उन महामुनियोंके शरीरको शोभित करती हैं, इसलिये मनोहर माणियोंसे रचे हुए आभूपोंकी निर्मलताको धारण करती हुई शोभायमान होती हैं। तथा इम जिनमतमें विचित्र २ प्रकारके बहुतसे वनों सरीखे बहुत प्रकारके तप अपनी अतिशय सुंदरताके कारण सुजनोंके हृदय अपनी ओर खींचते हैं । तया इस परमेश्वरप्रणीत शासनमें उज्वल वोंके चँदोवोंमें लटकी हुई मोतियोंकी चंचल झालरके रूपको धारण करनेवाले चारित्रके कारणरूप 'मूलगुण और उत्तरगुण अतिशय आमदको उत्पन्न करते हैं। क्योंकि जिसप्रकार रचनासौंदर्यके योगसे अर्थात् सुंदररचनाके कारण मोतियोंकी झालरें चित्तको प्रसन्न करती हैं, उसी प्रकारसे रचनामौंदर्ययोगसे अर्थात् मन वचन कायकी शुभ प्रवृत्तिसे मूलगुण और उत्तरगुण आनंदित करते हैं। ऐसे जैनदर्शनमें रहनेवाले भाग्यशाली प्राणियोंके मुखकी शोभाको, मुंगधिकी अधिकताको, और चित्तके अतिशय आनन्दको १ मुनियोंगे. २८ मूलगुण और ८४ लाख उत्तरगुण होते हैं। - -
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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