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________________ ९१ किया जाता है, उसको अवश्य ही मिला देता है । तथा वह उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी एकतारूप है जो कि परमपदके ( मोक्षके ) पानेका अव्यर्थ वा अचूक उपाय है और वह हमको मिल गया है । इसके सिवाय इस उपायका लाभ हो जानेपर उन्हें निश्चय हो गया है कि, इसे छोड़कर संसारमें दूसरी कोई भी वस्तु प्राप्त करने योग्य नहीं है, और ऐसा जानकर उनका चित्त अतिशय संतुष्ट हो गया है। उन्हें और कुछ भी इच्छा नहीं रही है। अतएव उन परमेश्वरके मतमें रहनेवाले जीवको शोक नहीं होता है, दीनता नहीं होती है, उत्सुकताका लय हो जाता है, रतिका विकार नष्ट हो जाता है, जुगुप्सा जुगुप्साके ( घृणाके ) योग्य हो जाती है, चित्तमें उद्वेग नहीं होता है, तृष्णा बिलकुल अलग हो जाती है, और भयका जड़से क्षय हो जाता है। तत्र उनके मनमें क्या रहता है ? धीरता रहती है, गंभीरता निवास करती है, उदारता बहुत वलवती हो जाती है, और उत्कृष्ट स्थिरता होती है। इसके सिवाय स्वाभाविक प्रशम (शान्ति) सुखरूपी अमृतके निरन्तर आस्वादन करने से जिनका चित्त आनन्दित रहता है, ऐसे वे जीव प्रबल रागकी कला - आंसे (भेदोंसे) रहित हैं, तो भी उनके हृदय में रति (शुभराग) अतिशय करके बढ़ती हैं, मदरूपी' रोग नष्ट हो गये हैं, तो भी उनके चित्तमें हर्ष रहता है, समवासी चन्दनके सदृश हैं, तो भी उनके आनन्दका विच्छेद नहीं होता है । १ मद शब्दका अर्थ हर्प भी होता है। इसलिये यहांपर विरोध दिखलाया है कि, मदरहित ( गर्भ रहित ) होकर भी मदसहित ( हर्पसहित ) है । २ चन्दनके समवासी अर्थात् पास रहनेवाले वृक्ष काट डाले जाते हैं । परन्तु यहां विरोध यतलाया है कि, समवासीचन्दन ( चन्दनसदृश सुगंधित ) होकर भी उन्हें कष्ट नहीं होता है । ( विरोधाभास अलंकार ) ।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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