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________________ ८२ दाहसे जिसका शरीर झुलस गया है और अतिशय प्यासकी व्याकुलतासे जो मूर्छित होकर गिर पड़ा हो, ऐसे किसी पथिकको वहींपर (मूर्छित अवस्थामें) स्वप्न आ जावे और उसमें उसे प्रवल जलतरंगोंसे आकुलित अनेक जलाशयोंका पानी पी रहा हूं, ऐसा दिखलाई देवे, तो भी उसकी प्यास जरा भी कम नहीं होती है, उसी प्रकारसे इस जीवकी आशा-प्यास भी धन विषयादिकोंसे कम नहीं होती है। अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हुए इस जीवने देवोंकी पर्यायोंमें इन्द्रियोंके अनुपम शब्द रस गंधादि विषय अनन्त वार भोगे, अनन्त अमूल्य रत्न प्राप्त किये, कामदेवकी स्त्री रतिके विलासोंका भी तिरस्कार करनेवाली विलासिनी देवाङ्गनाओंके साथ विलास किया, और स्वर्ग,मर्त्य तथा पाताल लोककी सबसे सुन्दर क्रीड़ाओंका भी उल्लंघन करनेवाली नानाप्रकारकी मनोहर क्रीड़ाएं की। तो भी अत्यन्त भूखके कारण घुसे हुए पेटवाले दरिद्रीकी नाई यह जीव उन दिनों भोगे हुए विषयोंका वृत्तान्त जरा भी नहीं जानता है-भूल जाता है, केवल उनकी अभिलापाओंके संतापसे सूखा करता है। ___ और पहले जो कहा है कि, "उस भिखारीको लोलुपतासे खाया हुआ वह भीखका भोजन अजीर्ण करता है और जब पच जाता है, तव वात विशूचिका आदि रोग उत्पन्न करके उसे दुखी करता है।" सो इस तरहसे घटित करना चाहिये कि, जब यह रागद्वेषादि विकारोंसे घिरा हुआ जीव कुभोजनके समान धन-विषयस्त्री आदि ग्रहण करता है, तब इसे कर्मसंचय वा कर्मबंधनरूप अजीर्ण होता है और जब यह उदय द्वारसे उसे पचाता है अर्थात् कर्मोंको उदय द्वारमें लाता है, तब वे कर्म नरक, तिर्यंच, मनुष्य चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरोऽपि सुरराज्यमीहते कर्तुम् । सुरराजोप्यूर्ध्वगति तथापि न निवर्तते तृष्णा ॥२॥
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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