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________________ ८१ हैं, तो यह महामोहमें विहल होकर जत्र तक जीता है, तत्र तक हृदयकी ज्वालासे जलता रहता है अथवा अधिक दुःख होने से प्राणों को ही छोड़ देता है । इस तरह एक एक वस्तुके प्रेममें उलझा हुआ जीव अनेकानेक दुःख पाता है, तो भी विपरीतश्रद्धान वा मिथ्यात्वके कारण उन वस्तुओंकी रक्षा करनेमें चित्तको लगाये हुए निरन्तर ऐसी शंका किया करता है कि, मेरी इस वस्तुको कोई हरण कर ले जायगा | और जैसा पहले कहा है कि, “उस बुरे भोजनसे पेट भर जाने - पर भी भिखारीको संतोष नहीं होता था वल्कि क्षण क्षणमें उलटी भूख बढ़ती थी।" उसी प्रकारसे धन, विषय, स्त्रीआदिरूप बुरे भोजन से पूरी करनेपर भी इस जीवकी अभिलापाका नाश नहीं होता है, बल्कि उसकी तृष्णा और भी अधिक बढ़ती है । जैसे, कभी सौ रुपया मिल जाते हैं, तो हजारकी चाह होती हैं। उतने भी हो जाते हैं, तो लाखकी इच्छा होती है। उसकी भी प्राप्ति हो जाने पर करोड़की और फिर उसके प्राप्त होनेपर राज्यकी वांछा होती है । जब राजा हो जाता है, तत्र चक्रवर्ती होनेकी चेष्टा करता है, और चक्रवर्ती हो जानेपर देव होना चाहता है । जत्र देव हो जाता है, तब इन्द्रकी वांछा करता है और पहले दूसरे स्वर्गका इन्द्र हो जानेपर भी उत्तरोत्तर कल्पस्वर्ग के स्वामीपनकी प्यास से पागलसा बना रहता है । इस प्रकार से इस जीवके मनोरथों की कभी पूर्ति ही नहीं होती है' । जैसे कठिन गर्मी के दिनोंमें चारों ओरकी दावानलकी १ च केनचित्तविना ६ इच्छति शती सहस्रं ससहस्रः कोटिमीहते कर्तुम् । फोटियुतोऽपि नृपत्वं नृपोऽपि वत चक्रवर्तित्वं ॥ १ ॥
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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