SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आर देव गतियोंमें भ्रमण करनेरूप वातविशूचिका आदि रोग उत्पन्न करके इस जीवको बहुत ही दुखी करते हैं। और उस भिखारीके भोजनको जिस प्रकार सारे (नये ) रोगोंका कारण और पहले उत्पन्न हुए रोगोंका बढानेवाला कहा है, उसी प्रकारसे इस रागी जीवके भोगे हुए जो विषय आदि हैं, उन्हें पहले कहे हुए महामोह आदि सारे रोगोंके उत्पन्न करनेके तथा पहलेके रोगोंके वढ़ानेके कारण समझना चाहिये । अभिप्राय यह है कि, विपयोंके भोगनेसे नये कर्म बंधते हैं तथा पुराने बाँधे हुए काकी स्थिति और अनुभाग (रस) बढ़ता और उन कोंसे राग-द्वेप-मोहआदि रोग होते तथा वढ़ते हैं। और जैसा पहले कहा गया है कि, "वह दरिद्री उसी कुभोजनको अच्छा मानता है, तथा अच्छे स्वादिष्ट भोजनका स्वाद तो वेचारेको स्वप्नमें भी कभी नहीं मिला है।" उसी प्रकारसे इस जीवकी चि. त्तवृत्ति महामोहसे ग्रसित है, इसलिये यह उपर कहे हुए सारे दोपोंसे दुपित धनविपयादिको अतिशय सुन्दर और अपना हितकारी मानता है और जो स्वाधीन, परलोकमें सुख देनेवाला, अपरिमित आनन्दका करनेवाला, और अतिशय कल्याणकारी, सम्यक्चारित्ररूप खीरका भोजन है, उसे यह बेचारा जिसके कि महामोहरूपी निद्रासे विवेकरूपी नेत्र बन्द हो गये हैं, कभी प्राप्त नहीं करता है। जिसके प्रारंभका कुछ पता नहीं है, ऐसे इस संसारके परिभ्रमणमें यदि इस जीवने कभी सम्यक्चारित्र पाया होता, तो इसे सारे क्लेशोंके नष्ट करनेवाले मोक्षकी प्राप्ति अवश्य ही हुई होती, इतने समय तक ' संसारवनमें नहीं भटकना पड़ता। परन्तु यह तो अभीतक भ्रमण करता है । इससे निश्चय होता है कि, मेरे जीवने सम्यक्चारित्ररूप सुन्दर भोजन कभी नहीं पाया है।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy