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________________ और वहां थोड़ीसी खाकर बाकी दूसरे दिनके लिये रख दूंगा। उस समय दूसरे भिखारी किसी तरहसे जान जावेंगे कि, इसे भीख मिली है, और मेरे पास आकर मांगेगे तथा उपद्रव करेंगे, परन्तु मैं प्राण जानेपर भी उन्हें अपनी भीख नहीं दूंगा। यदि वे जबदस्ती मेरा भोजन हुड़ावेंगे, तो मैं उनके साथ लड़ना प्रारंभ करूंगा। यदि उस समय वे मुझे लकड़ी मुक्कों तथा ढेलोंसे मारेंगे, तो मैं एक बड़ा भारी मुद्गर लूंगा और उनका एक एकका चूरा बना डालूंगा। वे पापी मेरे मारे कहां जावेंगे?" ऐसे ऐसे अनेक प्रकारके हे विकल्पोंसे आकुल व्याकुल होकर वह निरन्तर केवल रौद्रव्यान ही किया करता है । परन्तु वेचारा घरघर भटकनेपर भी थोडीसी भी भीख नहीं पाता है । उलय अपने चित्तके खेदको अनन्तगुणा कर लेता है । और यदि कमी दैवयोगसे थोडीसी भीख पा लेता है, तो उसमे एक बड़े भारी राज्यका अभिषेक पानेके समान अर्थात् राजा हो जानेके समान अत्यन्त आनन्दित होता है और सारे संसारको अपनेसे नीचा समझता है । भिखारीके इस सारे चरित्रकी योजना मेरे जीवके विपयमें इस प्रकारसे करना चाहिये: संसाररूपनगरमें निरन्तर भ्रमण करते हुए इस जीवको शब्द, वर्ण, रस, आदि २८ प्रकारके विषय, भाई, पिता, आदि वन्धु, सोना, चांदी आदि धन, तथा इनके सिवाय क्रीड़ा विकयादि और भी जो जो संसारके कारणरूप पदार्थ प्राप्त होते हैं, उन सबको कदन्न अर्थात् भीखका बुरा भोजन समझना चाहिये । क्योंकि कदन्नके समान ये सत्र पदार्थ भी वृद्धिरूप होनेवाले, रागादि भाव रोगोंके करनेवाले, और कर्मसंत्रयरूपी महा अजीर्णके करनेवाले हैं। और जिस प्रकार वह भिखारी विचार करता है, उसी प्रकारसे यह महामोहग्रसित जीव
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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