SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् तीर्थकर अथवा अन्य आचार्य जब पाप कर्मोका स्वरूप प्रगट करते हैं, तब भव्य जीवोंके हृदयमें संसार-देह-भोगोंसे भय उत्पन्न करनेके लिये ऐसे ही जीवोंका उदाहरण देते हैं। ___ और आगे जो उस दरिद्रीके वर्णनमें कहा है कि, "उस महा नगरमें और भी अनेक रंक देखे जाते हैं, परन्तु निष्पुण्यकके समान अभागोंका शिरोमणि दूसरा कोई नहीं है।" सो मैंने अपने जीवका अत्यन्त विपरीत आचरण अनुभव करके कहा है। क्योंकि इसके जन्मके अंधेपनको भी नीचा कर देनेवाला महामोह है, नरकके संतापको भी पराजित करनेवाला राग है, जिसकी कोई उपमा नहीं मिल सकती ऐसा दूसरोंसे द्वेष है,अग्निकी भी हँसी करनेवाला क्रोध है, सुमेरु पर्वतको भी छोटा करनेवाला मान है, नागिनीकी चालको भी जीतनेवाली माया है, स्वयंभूरमण समुद्रको भी थोड़ा दरसानेवाला लोभ है, और स्वप्नकी प्यासके समान विषयलम्पटता है। जिनेन्द्र भगवानके धर्मकी प्राप्तिके पहले मुझमें ये सब दोष थे; यह मुझे स्वसंवेदनसे (आत्मानुभवसे) ज्ञात हुआ है। और इसीलिये मैं समझता हूं कि दोषोंकी इतनी उत्कटता नितनी कि मुझमें है, बहुतकरके दूसरे जीवोंमें नहीं है। अर्थात् मेरे समान अभागी और कोई दूसरा नहीं है। यह वात युक्तिसे किस तरह घटित होती है, सो मैं आगे अपने प्रतिबोधित होनेके अवसरमें विस्तारसे कहूंगा। ___ वह दरिद्री 'अदृष्टमूलपर्यन्तनगरमें' भिक्षाके लिये घर २ फिरता हुआ इस प्रकार विचार करता है कि, "मुझे अमुक देवदत्तके वन्धुमित्रके, अथवा जिनदत्तके घरपर स्निग्ध (चिकनी), मीठी, बहुतसी और उत्तम प्रकारसे बनी हुई भिक्षा मिलेगी। उसे मैं झटपट ऐसे एकान्त स्थानमें जहां कि दूसरे भिखारी नहीं देख सकेंगे ले जाऊंगा
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy