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________________ थोड़ा खाता था। इससे उसके रोग मी हलके हो जाते थे। पर ज्यों ही वह उसे छोड़कर दूर चली जाती थी, यों ही वह लन्पटतासे अपना • कुभोजन खूब खाने लगता था और औषधि सेवन भी नहीं करता था। इससे अजीर्णसे फिर दुखी होने लगता था। ___ इधर धर्मबोधकरने तद्दयाको पहलेहीसे सम्पूर्ण लोककी रक्षा करनेके लिये नियुक्त कर रक्खी थी। इसलिये अनन्त प्राणियोंकी रक्षा करनेके काममें लगे रहनेसे वह उस दरिद्रीके पाप्त कभी २ आ सकती थी । वाकी समयमें वह स्वतंत्र रहता था, कोई रोकता नहीं था, इससे वह वारंवार रोगके विकारों से पीड़ित होता था और उसे वे भय उन्माद आदि फिरसे हो जाते थे। एकवार धर्मवोधकरने निष्पुण्यकको इस प्रकार दुखी देखकर . पूछा, "हे भाई! यह क्या है?"तब उसने अपना सब वृत्तान्त निवेदन किया और कहा,-"स्वामी! तया मेरे पास हमेशा नहीं रहती है और उसके न रहनेसे मेरे रोग विशेषतासे प्रगट हो जाते हैं। इसलिये हे नाथ! आप कोई ऐसा अच्छा उपाय कर देवें, जिससे स्वप्नमें भी मेरे शरीरमें पीड़ा उत्पन्न न हो।" धर्मबोधकर बोला"हे वत्स! तुझे जो कुछ पीड़ा होती है, वह अपथ्यसेवनसे होती है। और यह तदया जो तुझे अपथ्यसेवन करनेसे रोकती है, दूसरे कार्यों में नियुक्त रहने के कारण व्याकुल रहती है, इससे तुझे निरन्तर नहीं रोक सकती है। अस्तु, अब जो अपथ्यसेवन करनेसे तुझे सदा रोकती रहै, ऐसी कोई उत्तम परिचारिका मैं तेरे लिये नियुक्त कर देता हूं । परन्तु तू अनात्मज्ञ है अर्थात् अपने आत्माको और उसके हितको नहीं जानता है, इस कारण पथ्यसेवनसे पराङ्मुख और कदन्नभक्षण करनेके लिये उद्यत रहता है । इसलिये बतला अब मैं तेरा
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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