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________________ क्या करू?" दरिद्री बोला, "हे नाथ! ऐसा मत कहो । अब मैं आगे आपकी आज्ञाका कमी उलंघन नहीं करूंगा।" यह सुनकर और थोडासा विचार करके उसका हित करनेमें उद्यत रहनेवाले धर्मबोधकरने तत्काल ही कहा,--"अच्छा तो मेरी आज्ञानुसारिणी एक सद्बुद्धिनामकी स्त्री है । वह आकुलतासे रहित है, सो उसे मैं तेरी विशेष परिचारिका बनाता हूं। मेरी नियत की हुई वह परिचारिका तेरे पास निरन्तर रहकर पथ्यापथ्यका विवेचन किया करगी । मैंने उसे तेरे ही लिये दी है । सो अब तू अपने चित्तमें दुखी नहीं होना । परन्तु वह केवल विशेषज्ञा ही ह अर्थात् हिताहितका विचार ही कराती है । विपरीत चलनेवाले और अनादर करनेवाले पुरुषोंका उससे उपकार नहीं होता है। इसलिये यदि तुझे सुख पानेकी इच्छा है और दुखसे यदि तू डरता हैं तो वह जो कुछ कहेगी, उसे तुझे करना ही होगा। और मेरा भी यही कहना है कि, उसकी आज्ञानुसार चलना । क्योंकि जो उसे नहीं रुलता है, वह मुझे भी रुचिकर नहीं होता है। इसके सिवाय हे मद्र! यद्यपि तद्दया अनेक कामों में व्याकुल रहती है, तो भी तेरे पास बीच २ में आया करेगी और तुझे और भी जागृत कर जाया करेगी। यह परमार्थकी बात मैं केवल तेरा हित करनेकी इच्छासे कहता हूं कि, यदि तू मुख चाहता है तो तुझे सवुद्धिके विषयमें निरन्तर यत्न करना चाहिये । अर्थात् उसके अनुकूल चलकर उसे प्रसन्न रखना चाहिये । जो मूर्ख सद्बुद्धिका भले प्रकार आराधन करके उसे प्रसन्न नहीं करते हैं, उनपर न तो राजराजेश्वर प्रसन्न होते हैं, न मैं प्रसन्न होता है, और न अन्य कोई प्रसन्न होते हैं । जिनपर उसकी अप्रसन्नता होती है, वे सदा ही दुःखोंके पात्र बने रहते हैं। क्योंकि
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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