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________________ पिताने तो पहले ही कहा था कि तेरे शरीरमें जो सब प्रकारके रोग हैं, वे तेरे इस बहुत प्यारे भोजनके कारणसे ही हैं । मैं तेरा सब वृत्तांत देखती हूं परन्तु तोभी तुझे कहीं आकुलता न हो जावे, इस लिये उस कुभोजनको भक्षण करते हुए देखकर भी नहीं रोकती हूं । इन परमस्वास्थ्यकारी तीनों औपधियोंके सेवनमें तो तू शिथिल रहता है और सारे दुःखोंका करनेवाला यह कुभोजन तुझे रुचता है। इस तरह अपने आप ही तो तू कष्टमें पड़ता है और फिर रोता है। परन्तु अब तुझे नीरोग करनेका कोई उपाय नहीं है। क्यों कि "अपथ्येऽत्यर्थं सक्तानां न लगत्येव भेपजम्" अर्थात् जो रोगी अपथ्य पदार्थोके सेवन करनेमें अतिशय आसक्त रहता है, उसे औपधि लगती ही नहीं है। मैं तेरी परिचारिका हूं, इसलिये तेरे रोगी रहनेमें मेरी भी अपकीर्ति होती है। परन्तु क्या करूं ? अब मैं तुझे सदा नीरोग नहीं रख सकती हूं।" ___ यह सुनकर निष्पुण्यक बोला, "यदि ऐसा है, तो अबसे तुम मुझे कुभोजन करते समय निरन्तर निवारण कर दिया करो। क्योंकि अतिशय लालसाके कारण स्वयं तो मैं इसे छोड नहीं सकता हूं, परन्तु थोड़ा थोड़ा छोड़ते रहनेसे कदाचित् तुम्हारे प्रभावसे इस सारे कुभोजनको भी छोड़नेकी शक्ति मुझमें हो जायगी।" तद्दयावोली,-"अच्छा है ! अच्छा है । हे भद्र तुम सरीखे प्राणियोंको ऐसा कहना ही उचित है।" यह कह कर फिर वह उसे अधिक । कुभोजन करनेसे रोकने लगी और ऐसा करनेसे अर्थात् अधिक कुमो जनके न करनेसे उसके सारे रोग क्षीण होने लगे और शरीरमें औषधियोंके असर होनेसे रोगोंकी पीड़ा भी अधिक नहीं रही। परन्तु तद्दया जब उसके पास रहती थी, तभी वह पथ्यसे रहता था और अपथ्य
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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