SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हररोज नहीं । और तीर्थका जल तो जब वह कहती थी; तब ही पीता था। इसके सिवाय तद्दया जो प्रसन्नतासे बहुतसा महाकल्याणक भोजन दे देती थी, उसमेंसे वह थोड़ासा तो खा लेता था और बाकी अपने ठीकरेमें डाल देता था । इससे यद्यपि वह अपने कुभोजनको निरन्तर खाता था, तथापि महाकल्याणकके सान्निध्यसे अर्थात् उसके निरन्तर पड़ते रहनेसे वह कुभोजन कभी समाप्त नहीं होता था। अपने कुभोजनकी इस प्रकार बढ़ती देखकर निष्पुण्यक बहुत ही संतुष्ट होता था, परन्तु जिसके माहात्म्यसे वह कदन्न बढ़ता था, उसे नहीं जानता था । उसमें और और अधिक लोलुप होता हुआ उक्त तीनों औषधियोंको प्रेमसे सेवन करनेमें शिथिल होता जाता था.। उनके गुण जाननेपर भी नहीं जाननेवालेके समान अपने कुभोजनमें मोहित होकर कालक्षेप करता था। इस तरह प्रतिदिन भरपेट अपथ्य सेवन करनेसे और उक्त तीनों औषधियोंका अनादरपूर्वक आस्वाद करनेसे उस दरिद्रीके विशेष रोग तो नष्ट नहीं हुए, किन्तु उस उतने ही उत्तम भोजनके प्रयोगने जिसे कि वह अवज्ञापूर्वक करता था, बड़ा भारी गुण किया । अर्थात् उसके रोग क्षीण हो गये । तथापि आत्मज्ञानके अभावसे, उच्छृखलतासे और अपथ्य सेवनसे वे रोग अपना विकार कभी २ उसके शरीरपर प्रगट किये विना नहीं रहते थे। कभी शूल, कभी दाह, कभी मूर्छा, कभी ज्वर, कभी वमन, कभी जडता (शरीरशून्यता), कभी हृदय और पसलियोंमें पीड़ा, कभी उन्मादका दुःख, और कभी पथ्यभोजनमें अरुचि आदि नाना प्रकारके विकारोंवाले रोग उत्पन्न होते थे । एकवार दयावती तद्दयाने उसे ऊपर कहे हुए विकारोंसे दुखी और रोते हुए देख विचार करके कहा कि "हे भाई! तुझसे मेरे
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy