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________________ हूं, किसी भी प्रकारका भय नहीं रहा है। इसलिये अपने चित्तकी उस चंचलताका कारण कहता हूं, __ जिस समय दया करनेमें तत्पर रहनेवाले आपने मुझे भोजन देनेके लिये बुलाया था, उस समय मेरे हृदयमें यह शंका थी कि. यह मनुष्य मुझे किसी स्थानमें ले जाकर मेरे इस भिक्षाभोजनको छीन लेगा । इस अभिप्रायके वश अतिशय ध्यान करनेसे मैं चेतनाहीन हो गया । पश्चात् प्रीति करनेवाले आपने जब मुझे अंजन लगाकर सचेत किया, तब मैंने सोचा कि, यहांसे शीघ्र ही भाग जाऊं । परंतु जब आपने अपना अपूर्व पानी पिला कर मेरा शरीर शीतल किया और सुन्दर वार्तालाप किया, तब आपपर विश्वास आ गया। मैंने सोचा कि, जब ये मेरे ऐसे उपकारी हैं, और बड़ी भारी विभूतिवाले हैं-धनी हैं, तब मेरा भोजन छीननेवाले कैसे हो सकते हैं ? इसके पीछे जब स्वामीने (आपने) कहा कि, "इसे छोड़ दो और इस भोजनको ग्रहण करो।" तब इस चिन्ताले कि "अब मैं क्या करूं" मेरा चित्त आकुल व्याकुल हो गया। मैं सोचने लगा कि, मेरा भोजन यह स्वयं तो नहीं लेता है, केवल छुड़वाता है। परन्तु मैं इसे छोड़ भी तो नहीं सकता हूं। तब इसे क्या उत्तर दूं ? अन्तमें मैंने कहा कि, मेरा भोजन तो मेरे पास रहने दीजिये और आप जो देना चाहते हैं, वह दे दीजिये। पश्चात् आपने जब मुझे 'परमान्नभोजन' दिलाया, तब उसके आस्वादसे मुझे और भी विश्वास हो गया कि, आप मुझपर अत्यन्त प्रीति रखते हैं। इसके उपरान्त मैंने सोचा, तो क्या इस महात्माके वचन मानकर मैं अपना भोजन छोड दूं नहीं! जो मैं इसे छोड़ दूंगा, तो इसपर जो मेरी ममता है उसके कारण मैं व्याकुलचित्त होकर मर जाऊंगा। यद्यपि यह जो कहता है,
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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