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________________ क्लिष्टचित्तो जगत्सर्व मन्यते दुष्टमानसम् । शुभाभिसन्धयः सर्वे शुद्धचित्तं विजानते ।। २९०॥ अर्थात् " जिनका चित्त मलीन रहता है, वे सारे संसारको दुष्टचित्त मानते हैं और जिनके अभिप्राय शुद्ध होते हैं-निर्मल होते हैं, ये सारे जगतको शुद्धचित्त समझते हैं।" । इस प्रकार विचार करके उसने हंसकर कर कहा, “हे भद्र ! तू कुछ भी भय मत कर । अभी मैं तुझसे इस कुभोजनके छोड़नेके लिये नहीं कहता । इसे तू निराकुल होकर भोगा कर । पहले मैं जो तुझसे यह कुमोनन छुड़वाता था, सो केवल तेरा भला करनेकी बुद्धिसे हुड़वाता था। परन्तु यदि तुझे छोड़नेकी बात नहीं रुचती है, तो इस विषयमें मेरा चुप रहना ही ठीक है । पर यह तो कह कि, मैंने जो नुग्ने पहिले करने योग्य बातोंका उपदेश दिया था, सो तूने थोड़ा बहुत धारण किया या नहीं ?" । निप्पुण्यक बोला,-"नाथ | आपने जो कुछ कहा था, वह तो मैंने जरा भी नहीं सुना है-उसपर मेरा ध्यान ही नहीं था। मैं तो केवल आपके कोमल वार्तालापसे चित्तमें प्रसन्न हुआ हूं। क्यों कि, अशातपरमार्थापि सतां नूनं सरस्वती चेतोऽतिमुन्दरत्वेन प्रीणयत्येव देहिनाम् ॥ २९५ ॥ अर्थात्-सज्जन पुरुषोंकी वाणीका वास्तविक अर्थ (परमार्थ) भले ही समझमें न आवै, परंतु वह अपनी अतिशय सुन्दरताके कारण प्राणियोंका चित्त प्रसन्न करती ही है। जिस समय आप उपदेश देते थे, उस समय नेत्र तो मेरे आपके सम्मुख थे, परंतु चित्त कहीं अन्यत्र ही था । इस लिये आपके वचन मेरे एक कानमें से प्रवेश करते थे और दूसरे कानमें से निकल जाते थे। अब मैं निराकुल
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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