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________________ वह वास्तवमें ठीक है, परन्तु मेरी शक्ति नहीं है कि, मैं अपने भोजनको छोड़ दूं । हाय ! मुझपर यह कैसा दुस्तर दुःख आके पड़ा है। इस प्रकार नाना प्रकारके विचारोंकी व्याकुलतामें पड़े रहनेसे हे नाथ ! आपने अभीतक जो कुछ कहा, वह सब भरे हुए घडेमें और पानी डालनेके समान चारों ओरसे वह गया । मेरे मनकी वात जानकर अब जब आपने यह कहा है कि मैं तुझसे भोजन छोड़नेके लिये नहीं कहता हूं, तब मुझे थोड़ीसी निराकुलता मालूम हुई है। इस लिये हे नाथ ! अब ऐसे नीचचित्तवाले मुझ पापीको क्या करना चाहिये, सो वतलाइये, जिससे मैं उसे धारण करूं।" यह सुनकर दयावान् धर्मवोधकरने पहले जो बातें संक्षेपसे कहीं थीं, उन्हींको फिर खूब विस्तारके साथ समझा दी । और उसे अंजनके, जलके, अन्नके और विशेष करके राजाके गुणोंसे प्रायः अजान समझकर यह कहा कि, हे भाई ! राजाने मुझे पहले आज्ञा दी थी कि, मेरी ये तीनों औषधियां तुम योग्य पात्रको ही देना, अपांत्रको नहीं। क्योंकि अपात्रको देनेसे इनसे कुछ भी उपकार नहीं होगा -उलटा अनर्थ ही घटनेकी संभावना है। उस समय राजासे मैंने पूछा था कि, मैं यह कैसे जान सकूँगा कि पात्र कौन है और अपात्र कौन है? तब राजाने कहा था कि, "मैं उनके लक्षण कहता हूं, जब तक कोई रोगी योग्यताको प्राप्त नहीं होता, तबतक उसे 'स्वकर्मविवर' द्वारपाल इस राजभवनमें नहीं आने देता है। हमने उसे आज्ञा भी दे रक्खी है कि, तू उन्हीं मनुष्योंको यहां आने देना; जो इन तीनों औपाधियोंके ग्रहण करनेके योग्य हों, दूसरोंको नहीं। यदि कभी कोई अयोग्य पुरुष भी यहां आ जावें, तो वे हमारो राजमन्दिर देखके प्रसन्न नहीं होंगे और हमारी दृष्टि भी विशेषतासे उनका निरीक्षण नहीं
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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