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________________ ३२ 1 से इन्हें नाथबुद्धिसे अच्छी तरहसे पहिचान । और फिर ज्यो . २ तू इन महाराजकी गुणरूप औषधियोंका अधिक सेवन करेगा, त्यों २ तेरे शरीर के सब रोग कम होते जावेंगे। इन तीनों औषधियोंका वारंवार सेवन करना ही सारे रोगोंके हलके करनेका और अन्तमें नाश करनेका एक उपाय है । इसलिये हे सौम्य | किसी भी प्रकारका संशय न रखके मेरी इन तीनों औषधियोंका वारंवार विधिपूर्वक सेवन करता हुआ आनन्दसे इस राजभवन में रह । इससे तेरे सारे रोग नष्ट हो जावेंगे और फिर तू राजराजेश्वरका भलीभांति आराधन करनेसे स्वयं श्रेष्ठ राजा हो जावेगा । यह ' तद्दया ' तुझे प्रतिदिन तीनों औषधियां दिया करेगी। अब इस विषय में और अधिक क्या कहूं? सारांश कहनेका यही है कि तुझे इन तीनों औषधियोंका निरन्तर सेवन करना चाहिये ।" धर्मवोधकरके इस प्रकार कोमल वचन सुनकर निप्पुण्यक अपने मनमें प्रसन्न हुआ और अपने अभिप्रायोंको स्थिर करके बोला'महाशय ! अब भी मैं पापात्मा अपने इस कुभोजनको नहीं छोड़ सकता हूं, इस लिये इसके छोड़नेके सिवाय और जो कुछ मेरे करने योग्य हो उसे कहिये " । (( यह सुनकर धर्मवोधकरके चित्तमें यह बात आई कि, "जब मैं इससे केवल तीन औषधियोंके सेवनकी बात कहता हूं, तत्र फिर यह इस प्रकार कुछका कुछ क्यों बोलता है? मैं इससे इस अन्नके छोड़ने की बात तो कहता ही नहीं हूं। हां ! अब मालूम हुआ । यह अपनी तुच्छता ( ओछाई) के कारण मनमें ऐसा विचार रहा है कि, इन्होंने जो कुछ कहा है, वह सत्र मेरे भोजनके छुडानेके लिये कहा है । क्योंकि,
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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