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________________ आपके साथ कोई भी उपकार नहीं किया, तो भी आपने मुझ अभागी और सबसे नीच जीवपर इस प्रकार दया की है। इस लिये अब आपके सिवाय मेरा कोई दूसरा नाथ नहीं है।" यह सुनकर धर्मवोधकर बोला, "हे भद्र! यदि ऐसा है, तो मैं जो कहता हूं, उसे थोड़ी देर बैठके सुन ले और फिर उसके अनुसार आचरण कर ।" दरिद्री विश्वास करके उसके पास बैठ गया और तब भलाई करनेकी इच्छासे सुन्दर वचनोंके द्वारा उसके मनको प्रसन्न करता हुआ धर्मबोधकर बोला,"हे भाई ! तू कहता है कि, अब मेरा तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा नाथ नहीं है, सो ऐसा नहीं कहना चाहिये। क्योंकि तेरे तो ये राजराजेश्वर स्वामी हैं। ये भगवान् इस लोकमें भरे हुए सारे चर अचर प्राणियोंके नाथ हैं। और इस रानभवनमें जो २ प्राणी रहते हैं, उनके तो ये विशेष करके नाथ हैं। जो कल्याणके पात्र अर्थात् भव्यपुरुष इन राजराजेश्वरकी सेवकाई करते हैं, उनके तीनों भुवनके जीव थोड़े ही दिनमें सेवक हो जाते हैं । अर्थात् वे भी राजराजेश्वरके समान हो जाते हैं। परन्तु जो अत्यन्त पापी ( अभव्य ) जीव सुखके पात्र होनेके योग्य नहीं हैं, वे बेचारे तो इन नरनाथका नाम भी नहीं जानते हैं। और इन महात्माके राजभवनमें जो 'भाविभद्र' दिखलाई देते हैं, जिन्हें कि 'स्वकर्मविवर' द्वारपालने भीतर प्रवेश करने दिया है, वे सब राजाको वास्तवमें अच्छी तरहसे जानते हैं। इसमें सन्देह नहीं है । पर जो प्राणी मुग्ध हैं, वे यहां प्रवेश करनेके पीछे मेरे कहने पर राजाको विशेषतासे जानते हैं । अतएव हे भद्र । जबसे तूने सु-- पुण्यके कारण इस राजभवनमें प्रवेश किया है, तवसे तो ये नरेन्द्र तेरे नाथ हुए ही हैं । अब केवल मेरे वचनसे तू यावज्जीव शुद्ध मन
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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