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________________ ३० भी बढ़ाता है । और अधिक कहने से क्या ? जिस प्रकार यह राजेन्द्र अजर अमर और सदा आनन्दपूरित होकर रहता है, उसी प्रकार से तू भी इस भोजनके बलसे अक्षय और आनन्दमय होकर रहेगा। इस लिये हे भद्र | तू आग्रहको त्यागकर सारे रोगोंके करनेवाले अपने इस कुभोजनको छोड़ दे और अतिशय आनन्दकारी इस परम औषधिरूप परमान्नको ग्रहण कर ।" वह बोला, "हे पूज्य | इस कुभोजनके छोड़ते ही मैं इसके स्नेहके विभ्रमसे मर जाऊंगा । इसलिये इसे मेरे पास रहते हुए ही आप अपनी औपधि दे दीजिये।" तव निष्पुण्यकका आग्रह जानकर धर्मवोधकरने सोचा कि, "इस समय इसके समझानेका और कोई अच्छा उपाय नहीं है, इसलिये इसे अपना कुभोजन लिये रहने दो और यह परमान्नरूप औषधि दे दो । पीछे जब यह इसकी उत्तमता जानेगा, तब स्वयं ही अपनी भीखको छोड़ देगा ।" ऐसा जानकर उसने कहा कि, "हे भद्र । अभी तो तू यह परमान्न ले ले और इसका उपयोग कर ।" यह सुनकर जब भिखारीने कहा कि, " अच्छा दो,” तव धर्मवोधकरने तद्दयाको इशारा किया और तदनुसार उसने दरिद्रीको वह परमान्न दे दिया, सो उसने वहीं बैठकर तत्काल ही उसे खा लिया । इसके पीछे उस उत्तम भोजनके उपयोगसे निष्पुण्यककी भूख शान्त हो गई और उसके सारे शरीर में जो अनेक रोग हो रहे थे, वे एक प्रकारसे मिटे जैसे हो गये। इसके सिवाय पहले अंजनसे और जलसे उसे जो सुखकी प्राप्ति हुई थी, वह इस भोजनके करनेसे अनन्तगुणी हो गई । इससे उस दरिद्रीके हृदयमें भक्ति उत्पन्न हुई, और शंकाएं नष्ट हो गईं । प्रसन्न होकर वह उससे बोला, "मैंने -
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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