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________________ ७ रोगों का घर बन रहा है और उनकी वेदनाओंके जोरसे विहल हो रहा है । जाड़ा, गर्मी, डांस, मच्छर, भूख, प्यास आदि उपद्रवोंसे वह पीड़ित है, और इससे घोर नारकीके समान वेदनाओंका अनुभवन करता है | उस निष्पुण्यक दरिद्रीको देखकर सज्जनोंको दया उत्पन्न होती है, मानी पुरुषोंको हंसी आती है, बालकोंको खेल सूझता ह और पापकर्म करनेवालोंको दृष्टान्तपूर्वक उपदेश मिलता है उस महानगरमें और भी अनेक रंक देखे जाते हैं, परन्तु निष्पुorea समान अभागों का शिरोमणि दूसरा कोई नहीं है । वह निष्पुण्यक "इस घरमें मुझे भिक्षा मिलेगी" "इसमें मिलेगी" इत्यादि चिन्ता करके निरन्तर नाना प्रकारके विकल्पोंसे व्याकुल तथा ध्यानमें मग्न रहता है । परन्तु तो भी उसे भिक्षामें कुछ भी नहीं मिलता है, केवल खेद ही होता है । और यदि कभी थोड़ा बहुत कदन्न ( वुरा भोजन ) पा लेता है, तो उससे एक राज्य पा लेनेके समान संतुष्ट होता है । लोगों के अपमानपूर्वक दिये हुए उस बुरे अन्नका भोजन करते हुए भी वह इस बात से बहुत ही डरा करता है कि, कोई बलवान् इसे छीन ले जायगा । और उस कदन्नके खानेसे उसको कुछ तृप्ति भी नहीं होती है | बल्कि भूख और २ बढ़ती है और खाया हुआ जो कुछ पच जाता है, वह उसे वात विशूचिका ( महामारी ) आदि रोग बनकर पीड़ित करता है । यद्यपि इनके सिवाय और भी सब रोगों का कारण वही कदन्न है, और पहलेके रोगोंका बढ़ानेवाला भी वही है, परन्तु वह बेचारा उसीको सुन्दर मानता है और दूसरे अच्छे भोजन की ओर देखता भी नहीं है । स्वादिष्ट भोजनका स्वाद उसने कभी स्वशमें भी नहीं जाना है कि, कैसा होता है ।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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