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________________ वह व्याकुलचित्त दरिद्री उस नगरके ऊंचे नीचे घरोंमें, नाना प्रकारकी गलियों में तथा मुहल्लोंमें बहुत बार भ्रमण कर चुका है-चक्कर लगा चुका है। और इस प्रकार भ्रमण करते २ उस दुखी तथा महापापसे पीड़ित आत्मावाले दरिद्रीका न जाने कितना समय बीत गया है। इस महानगरमें एक सुस्थित नामका प्रसिद्ध राजा है, जो समस्त जीवोंपर स्वभावसे ही अतिशय वात्सल्य रखता है। एक दिन बहुतसे चक्कर लगाते २ वह भिखारी इस रानाके महलके पास आया । उसके द्वारपर एक स्वकर्मविवर नामका द्वारपाल पहरा दे रहा था। उसने निष्पुण्यकको अतिशय दयाका पात्र देखकर दयाभावसे उस अपूर्व राजमन्दिरमें चला जाने दिया। रत्नोंकी राशिकी ज्योतिसे उस राजमहलमें अंधकारकी कुछ भी बाधा नहीं है अर्थात् निरन्तर प्रकाश रहता है और स्त्रियोंकी कटिमेखला (बजनेवाली करधनी) तथा विछुओंके उठे हुए झंकार शब्दसे वह महल सदा सुन्दर लगता है । देवोपनीतं वा देवदूष्य (देवोंद्वारा आये हुए) वस्त्रोंके चंदोवोंसे जिनमें कि चंचल मोतियोंकी मालाएं लटक रहीं हैं वह महलं युक्त है और लोगोंके ताम्बूलोंकी ललाईसे रंगे हुए मुखोंसे मनोहर है। उस राजमन्दिरका आंगन विचित्र भक्तिसे बनाई हुई, सुगन्धित, और सुन्दरवर्णवाली मालाओंसे जिनपर कि शब्द करते हुए भौरे मनोवेधक गायनं करते हुए जान पड़ते हैं; महक रहा है-मर रहा है और मर्दन (मालिश) करते समय सुगंधित विलेपन (उबटन) के गिर जानेसे वह कीचड़मय हो रहा है। इसके सिवाय वहांके प्रसन्नचित्त प्राणी आनन्दमर्दल (एक प्रकारका बाजा) बजा रहे हैं।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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