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________________ १६६ "हे भगवन् ! सम्यक्प्रकारसे मैं कुछ भी नहीं समझता हूं, मेरे चित्तपर कुछ भी असर नहीं होता है, परन्तु आपके मीठे और मुन्दर वचनोंसे आनन्दित होकर ज्यों ही आप कुछ कथन करते हैं, त्यों ही शून्यहृदय हूं, तो भी टकटकी लगाये हुए इस तरह मुनता रहता हूं, जैसे सब कुछ समझता होऊं। भला मेरे जैसे मूर्खके हृदयमें उत्कृष्ट तत्वोंका प्रवेश कैसे हो सकता है ! क्योंकि जब आप तत्त्वमार्गका व्याख्यान करते हैं, तब मैं बहुत कुछ प्रयत्न करता हूं, तो भी सोते हुएके समान, नशेवानके समान, पागलके समान, और मूर्छितके समान सर्वथा शून्यहृदय होकर कुछ भी नहीं समझ सकता हूं। मेरे चित्तकी इस अस्थिरताका जो कारण हैं, उसे भी सुन लीजिये।" इस प्रकार कहकर मिसके चित्तमें पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ है ऐसा यह जीव गुरुके साम्हने अपने दुश्चरित्रोंकी तथा बुरे वचनोंके कहनेकी निन्दा करता है, पूर्वमें उसे जो २ बुरे विकल्प उठे थे, उन्हें प्रगट करता है, और आदिसे अन्ततक अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन करता है। फिर कहता है कि, "हे भगवन् ! मैं जानता हूं कि, आप मेरी भलाई करनेकी इच्छासे विषयादिकोंकी बहुत २ निन्दा करते हैं, परिग्रह छोड़नेको कहते हैं, जो परिग्रह त्याग कर देता है, उसके प्रशम सुखकी प्रशंसा करते हैं, और उस त्यागके कारण जो परमपद अर्थात् मोक्षरूप कार्य सिद्ध होता है, उसकी श्लाघा करते हैं, तो भी मैं कर्मोंकी परतंत्रताके कारण जो धनविषयादिकोंमें पूर्वके अभ्याससे मूर्छा हो रही है, उसे उसी प्रकारसे निवारण नहीं कर सकता हूं, जिस तरहसे वहुतसे भैसके दही और बैंगनको खानेवाला निद्राको नहीं रोक सकता है और बहुत तीन विषको खानेवाला विहलताको नहीं
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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