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________________ १६५ आगे इस विषय में मैं चुप ही रहूंगा । परन्तु यह तो कह कि मैंने जो पीछेसे राजराजेश्वरके गुण आदि वर्णन किये थे और तुझे क्या करना चाहिये, यह समझाया था, सो तूने उसमें थोड़ा बहुत कुछ धारण किया या नहीं ? - स्मरण रक्खा है या नहीं ? " धर्मगुरू धर्माचार्य भी धर्मataकरके समान ऐसी ही सब बातें विचारते हैं और कहते हैं । यह सत्र स्पष्ट ही है । अतः पढ़नेवालोंको अपनी बुद्धिसे ही इसकी योजना कर लेनी चाहिये । 1 पश्चात् उस निप्पुण्यकने कहा, " हे नाथ | मैंने आपके कहे हुए वचनोंपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया है । मुझे नहीं मालूम है कि आपने क्या कहा था; तौ भी आपके कोमल वचनालापसे मेरे चित्तमें थोड़ामा आनन्द उल्हसित हुआ है ।" इसके पीछे भिखारीने जब कि वह धर्मवोधकरके यह वचन सुनकर कि 'मैं तुम्हारे भोजनका त्याग नहीं कराना चाहता हूं' भयरहित हो गया था अपने चित्तकी व्याकुलताका कारणभूत सारा वृत्तान्त आदिसे अन्त तक कह सुनाया । और पूछा कि, "ऐसी अवस्थामें अब मुझे क्या करना चाहिये, सो आज्ञा दीजिये। मैं उसे धारण करूंगा ।" इसी प्रकार श्रीगुरु महाराज भी जीवके चित्तकी दशा जानकर कहते हैं कि " हम तुझसे सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करनेके लिये जिसे कि तू नहीं छोड़ सकता है, नहीं कहते हैं । केवल तुझे स्थिर करनेके लिये भगवानके गुणोंका अनेक प्रकारसे वर्णन करते हैं और अंगीकार किये हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारि'त्रके निरन्तर पालन करनेके लिये उपदेश देते हैं । सो तू इसकी कुछ धारणा करता है या नहीं, अर्थात् हमारे उपदेशका तेरे हृदय - पर कुछ असर होता हैं या नहीं ?" तत्र यह जीव कहता है कि 1
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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